SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ३६४ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : के अन्त में उसने यह विचार कर कि-अवश्य आज जिनेश्वर · का पारणे का दिन होना चाहिये । प्रभु से कहा कि दुःसाध्य संसाररूपी व्याधि को निवारण करने में धन्वन्तरी वैद्य के सदृश हे स्वामी ! कृपादृष्टि से मेरे सामने देख कर आज तो अवश्य मेरी प्रार्थना को स्वीकार करना। ऐसा कह कर अपने घर चला गया। मध्याह्न समय हाथ में मोतियों का थाल लेकर प्रभु को बांदने के लिये घर के द्वार पर खड़ा होकर विचार करने लगा कि-आज विश्वबन्धु भगवान् यहां पधारेंगे, उनको मैं परिवार सहित वन्दना कर घर में ले जाउंगा और श्रेष्ठ भोजन तथा जलद्वारा मैं उनका सत्कार कर शेष अन्न को मैं खाउंगा आदि मनोरथ की श्रेणि पर आरुढ़ हो कर उसने बारवें देवलोक के योग्य कर्म का उपार्जन किया। उस समय श्रीभगवान् अभिनव नामक श्रेष्ठी के घर भिक्षार्थ पधारे । उस श्रेष्ठी के यहां समय हो बाने से सब भोजन कर रहे थे अतः कुछ भी भोजन नहीं होने से थोड़े से बचे हुए उड़द के बाकले बहरायें । उस दान के प्रभाव से वहां पंच द्रव्य प्रकट हो गये । उस समय दुन्दुभी का शब्द सुन कर जीर्णश्रेष्ठीने विचार किया किअहो ! मुझे धिक्कार है । मैं अधन्य हूँ कि-जिससे प्रभु मेरे घर पर नहीं पधारे । ऐसा विचार करते हुए उसको ध्यान भंग हुआ । फिर उस ग्राम में कोई ज्ञानी मुनि. पधारे जिन को
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy