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________________ व्याख्यान ३६ : : ३३५ : व्याख्यान ३६ वां समकित के पांच भूषणो में से प्रथम स्थैर्य नामक भूषण धर्मांगमेभिर्भूष्यन्ते, भूषणानीति कथ्यते । सुरादिभ्योऽप्यक्षोभत्वं, तत्राद्यं स्थैर्य भूषणम् ॥१॥ भावार्थ:- स्थैर्यादिकद्वारा धर्मरूपी अंग सुशोभित होता है, अतः वे भूषण कहलाते हैं । इन में देवादिक से क्षोभित नहीं होने को स्थैर्य नामक भूषण कहते हैं । इस स्थैर्य नामक भूषण पर निम्नस्थ सुलसा चरित्र प्रसिद्ध है । तद्दर्शनं किमपि सा. सुलसाप येन, प्रादा जिनोऽपि महिमानममानमस्यै । नैर्मल्यतः शशिकला न च केतकी च, मालातुलां चहरमूर्ध्नि बभार गंगा ॥x भावार्थ:- अलौकिक समकित तो सुलसाने ही प्राप्त किया है कि - जिस से उसकी निर्मलता की साक्षात् श्रीमहावीरस्वामीने भी अत्यन्त प्रशंसा की है और यह उचित भी X उत्तरार्द्ध अशुद्ध है ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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