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________________ : ३३२ श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : प्रातःकाल राजा उस प्रासाद को देखने गया तो वहां उन श्लोकों को पढ़ कर विचार करने लगा कि-मेरे मित्र के अतिरिक्त अन्य ऐसा बोध कोन दे सकता है ? अरे! मैं कैसा अकार्य करने को तैयार हो गया हूँ ? मेरे जीवन को धिक्कार है ! अब मैं मेरे गुरु को मुख किस प्रकार बतलाऊँ ? अब तो मेरे इस कलंकित जन्म को ही धिक्कार है ! आदि अनेकों प्रकार से पश्चात्ताप कर राजाने अग्नि में प्रवेश करने का निश्चय किया। प्रधानादिने इसकी सूचना सूरि को दी तो उन्होंने जाकर राजा से कहा कि-हे राजा ! इस प्रकार आत्महत्या करने से क्या फल मिलेगा ? मन से बांधे हुए कर्म का मन से ही नाश किया जाता है अथवा इस विषय में तू स्मात धर्मानुयायी ब्राह्मणों से पूछना क्योंकि स्मृतियों में भी पाप का प्रायश्चित्त करना बतलाया गया है । यह सुन कर राजाने ब्राह्मणों को बुला कर उसका प्रायश्चित्त पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया किआयःपुत्तलिकां वह्निध्मातां तद्वर्णरूपिणीम् । आश्लिष्यन्मुच्यते सद्यः पापाच्चांडालीसंभवात् ॥ भावार्थ:--लोहे की पुतली को अग्नि में तपा कर अग्नि के वर्ण सदृश लाल कर उसको आलिंगन करने से उत्पन्न हुए पाप से मनुष्य तत्काल मुक्त हो सकता है।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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