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________________ श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : जो रत्न निकाले थे वे सब तेरे शीर के अवयवों में ही दृष्टिगोचर होते हैं। ___ यह सुन कर मूरिने विचार किया कि-अहो ! महापुरुषों की मति भी कैसी भ्रमित हो जाती है ? । गायन बन्द हुआ और सभा भी विसर्जित हो गई परन्तु राजा का चित्त उस मातंगी पर मोहित था अतः उसके साथ रहने के लिये उसने ग्राम के बहार तीन ही दिन में एक सुन्दर प्रासाद बनवाया । उस प्रासाद के बनवाने का हेतु समझ कर गुरुने विचार किया कि-अहो! यह राजा मेरी संगत में रहने पर भी ऐसे कुकर्मों में प्रवृत्त होता है जिसके फलस्वरूप वह अवश्य नर्कगामी होगा अतः मुझे किसी भी प्रकार से उसे प्रतिबोध करना चाहिये कि-जिस से वह ऐसे नर्कगामिनी कुकर्मों में फंसने से बच सके । ऐसा विचार कर सूरिने रात्रि के समय गुप्तरूप से जाकर उस नव प्रासाद के भारवट पर खडिया से उसको प्रतिबोध करने के लिये जल के बहाने अन्योक्तियुत श्लोक लिखे कि शैत्यं नाम गुणस्तवैव, भवति स्वाभाविकी स्वच्छता । किं ब्रूमः शुचितां भवन्ति, शुचयस्त्वत्सङ्गतोऽन्ये यतः ॥
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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