SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ३२६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : पत्तह एहु पड़त्तणं, वरतरु कांइ करंत ॥१॥ भावार्थ:-हे गुरु ! वृक्षोंने तो मुसाफिरो पर छाया करने के लिये ही अपने शिर पर पत्तों को धारण किये हैं किन्तु तिसपर भी यदि वे पत्ते भूमि पर गिर पड़े तो इस में वृक्ष का क्या दोष है ? वह पत्ते तो स्त्र स्त्र इच्छा से ही गिरते हैं। आदि अन्योक्तिद्वारा गुरु को विज्ञप्ति करने के लिये प्रधानों को भेजा । प्रधानोंने उसी प्रकार गुरु के पास : जा कर विज्ञप्ति की इस पर गुरुने कहा कि-तुम आमराजा को इस प्रकार जा कर कहना किअस्माभिर्यदि कार्य वस्तदा धर्मस्य भूपतेः । सभायां छन्नमागत्य, स्वयमापृच्छ्यतां द्रुतम् ॥१॥ जाते प्रतिज्ञानिर्वाहे, यथायामस्तवान्तिकम् । प्रधानाः प्रहिताः पूज्यैरिति शिक्षांपुरस्सरम् ॥२॥ __भावार्थ:-हे आमराजा ! यदि तुमको हम से काम हो तो तुम स्वयं धर्मराजा की सभा में गुप्तरूप से आकर हमें आमंत्रण करो क्योंकि ऐसा करने से हमारी प्रतिज्ञा पूर्ण होगी और हम तुम्हारे पास आ सकेंगे । इस प्रकार शिक्षा देकर पूज्य गुरुने प्रधानों को वापस लौटाये । प्रधानोंने जा कर वाक्य राजा को सुनाया इस पर गुरुदर्शन के लिये उत्कंठित आमराजा शीघ्र ही ऊंट पर स्वार
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy