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________________ व्याख्यान ३४ : : ३०७ : बोला हुआ न समझंगा तो उसका शिष्य हो कर उसकी सेवा करुंगा। एक समय वह जब नगर में घूम रहा था तो उसने याकिनी नामक साध्वी के मुंह से यह गाथा सुनी किचक्किदुगं हरिपणगं, पणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव, दुचक्की केसि अ चक्की अ ॥१॥ भावार्थ:-प्रथम दो चक्रवर्ती, बाद में पांच वासुदेव, बाद में पांच चक्री, बाद में एक केशव (वासुदेव), बाद में एक चक्री, बाद में एक केशव (वासुदेव), बाद में एक चक्री, बाद में एक केशव, बाद में दो चक्री, बाद में एक केशव और तत्पश्चात् एक चक्री-इस प्रकार बारह चक्री और नो वासुदेव इस चोवीशी में हुए हैं। ___ यह गाथा सुन कर इस का अर्थ नहीं समझने से उस हरिभद्रने साध्वी के पास जा कर कहा कि-"हे माता! ये क्या बकबक करती हो ?" साध्वीने उत्तर दिया कि-"जो नया होता है वह बकबक करता है परन्तु यह तो पुराना है।" यह सुन कर हरिभद्रने विचार किया कि-अहो ! इस साध्वीने तो मुझे उत्तर देने मात्र से परास्त कर दिया है। फिर उसने साध्वी से कहा कि-"हे माता ! मुझे इस गाथा का अर्थ बतलाइये।" उसने उत्तर दिया कि-"मेरे गुरु तुझे इस का अर्थ बतलावेंगे।" उसने पूछा कि-"वे गुरु कहां पर
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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