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________________ : २९२ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : चकित हो उसे सन्मान दिया। पूजा के समय देवबोधिने . राजा को जिनेश्वर की पूजा करते देख कर कहा कि-हे राजा! तुझे तेरे कुलधर्म का उल्लंघन करना अयुक्त है । कहा भी है किनिन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवंतु, लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥२॥ भावार्थ:-नीतिशास्त्र के निपुण पुरुष निन्दा करे चाहे स्तुति करे, लक्ष्मी प्राप्त हो या अपनी इच्छानुसार चली जावे, आज ही मृत्यु हो या युगान्तर के बाद फिर भी धीर पुरुषो बिना किसी की परवाह किये, न्याय पथ से पग भर भी विचलित नहीं होते । अतः हे राजा ! तुझे कुलपरंपरागत शिवधर्म का त्याग करना अयोग्य है । यह सुन कर राजाने कहा कि-सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत एक जैनधर्म ही सत्य है । देवबोधिने उत्तर दिया कि-हे राजा ! यदि तुझे शिवधर्म की प्रतीति न होती हो तो महेश्वरादिक तीनों देवताओं की पूजा करते हुए तेरे पूर्वजों को साक्षात् यहां आया देख कर तेरे मुंह से ही उनको पूछा कर निश्चय करलें ऐसा कह कर उसने अपनी विद्याद्वारा उन देवताओं तथा कुमारपाल
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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