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________________ व्याख्यान १: स्तुति की है तथा जो नाथ के भी नाथ हैं ऐसे हे वामाराणी के पुत्र शंखेश्वर पार्श्वनाथस्वामी ! तुम्हारी जय हो ! इस प्रकार जिनेश्वर आदि त्रिपदीरूप वर्ण को प्राप्त ऐसे गणधर जिनकी स्तुति करते हैं वे तथा जो पार्श्वनाथस्वामी के उपनाम की संख्या अन्तरिक्ष, नवपल्लव आदि नामों से जिनतनु लक्षण के प्रमाण जितनी अर्थात् एक हजार आठ की जो जगतप्रसिद्ध है उस सुखदायक संख्या की मैं हर्षपूर्वक स्तुति करता हूं। जो सिद्धार्थराजा के पुत्र अनन्तज्ञानरूपी कल्पवृक्ष के नन्दनवन के सदृश हैं, संसार के ताप को नाश करने में बावना चन्दन सदृश हैं, जिन्होंने अनिन्दित वचनों द्वारा विश्व को विकासित किया है, और जिन्होंने अपने ( तीर्थकरके ) भवके पूर्वके तीसरे भव में अग्यारह लाख अस्सी हजार और पांचसो मासक्षमण किया है उन श्री वीरस्वामी की जय हो ! भव्य प्राणियों से अर्चन करने योग्य, कामदेव को जीतनेवाले, स्वयंभू तथा संसार का नाश करनेवाले ऐसे श्री अजितनाथ, संभवनाथ आदि तीर्थंकर ग्रन्थ के वक्ता और कर्ता आदि शुभ आत्मावाले सत्पुरुषों के लिये सुखदायक हो! प्रथम पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करके इस उपदेशप्रासादकी वृत्ति को जिसमें वर्ष के दिनों के अनुसार तीन सो
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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