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________________ २९० : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : भावार्थ:--हे राजेन्द्र ! यदि तू कृतज्ञ हो कर प्रत्युपकार करना चाहता हो तो आत्महितकारक जैनधर्म में अपना मन स्थिर कर अर्थात् जैनधर्म को स्वीकार कर । राजाने 'तथास्तु' कह कर जैनधर्म को स्वीकार किया। एक बार राजा सरि को साथ लेकर सोमेश्वर की यात्रा के लिये गया । वहां राजाने महादेव को वन्दना की इस पर ब्राह्मणोंने राजा से कहा कि-हे राजा ! जैनावलम्बी तो अपने तीर्थंकर के अतिरिक्त अन्य देवता के सामने सिर नहीं झुकाते । यह सुन कर राजाने सूरि को शिवजी की वन्दना करने को कहा तो सूरि बोले कि भवबीजाकुरजनना, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुवा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥१॥ यत्र तत्र समये यथा तथा, योऽसि सोऽस्यभिधया यथा तथा । वीतदोषकलुषः स चेद्भवानेक, एव भगवन्नमोऽस्तु ते ॥ २॥ भावार्थ:--जिस के भवबीज के अंकुर को उत्पन्न
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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