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________________ : २८६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : __ राजा के भय से वज्रा भी ब्राह्मण के साथ वहां से चली गई किन्तु चलते चलते देवयोग से पुत्र के राज्याधीन नगर में ही आकर ठहरे । काष्ठ साधु भी विहारक्रम से घूमते घूमते उसी नगर में आ पहुंचे और अकस्मात् उसी वज्रा के घर भिक्षा मांगने गये । वज्राने अपने पति को देखकर विचार किया कि-यदि यह मुझे पहचान लेगा तो मेरी निन्दा करेगा अतः उसने भिक्षा के साथ मिक्षापात्र में गुप्त रूपसे अपना एक आभूषण मुनि को बहरा कर जोर जोर से पुकारने लगी कि-इस साधुने मेरा आभूषण छीन लिया है। राजसेवकोने यह हल्ला सुन, साधु को चोर समझ कर उसे पकड़ कर राजा के पास ले गये। उस समय राजा के समीप बैठी हुई धात्रीने उसको पहचान कर कहा कि-हे राजा ! यह तेरा पिता है। यह सुन राजाने सर्व वृत्तान्त जान कर अपने पिता को मरवाने की इच्छुक माता को निर्वासित करा दिया और स्वयं श्रावक बन अपने पिता को अत्यन्त आग्रह से वहां रक्खा । राजा सदैव सर्व समृद्धि सहित गुरु को वन्दन करने निमित्त जाने लगा। जैनशासन को इस प्रकार उन्नत होते देख कर ब्राह्मण लोग द्वेष करने लगे । उन्होंने मुनि के छिद्र ढूंढ़ने का बहुत प्रयास किया किन्तु जब वे उस लपस्वी मुनि में एक भी दूषण न पा सके तो निराश होकर उन्होंने एक प्रपंच रचा। एक गर्भवती दासी को बहुत द्रव्य देकर उस साधु को कलंकित करने
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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