SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याख्यान ३० : : २७७ : फिर लोगों में अपनी प्रशंसा के लिये वह ऐसी बात करने लगा कि-मैं बाल्यकाल से ही निरन्तर लग्ने निकालने के विचार में रहता था। एक बार ग्राम के बाहर एक शिला पर मैंने सिंह लग्न निकाला । उस लग्न को ज्यों का त्यों छोड़ कर मैं अपने घर पर आकर सो रहा। उस समय मुझे स्मरण हुआ कि-मैं उस सिंह लग्न को मिटाना भूल गया हूँ। मैं उसको मिटाने के लिये शीघ्रतया वापस वहां गया तो क्या देखता हूँ कि उसके ऊपर एक सिंह आकर बैठा हुआ है । मैंने सिंह से किश्चित् मात्र भी भय न पाकर उस क नीचे हाथ डाल कर उस लग्न को मिटा दिया। मेरी इस हिम्मत को देख कर उस लग्न के स्वामी सूर्यने प्रत्यक्ष हो कर मुझ से कहा कि--हे वत्स ! मैं तेरे पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ अतः कोई वरदान मांग। मैंने उत्तर दिया कि-यदि आप मेरे से प्रसन्न हैं तो मुझे अपने विमान में बैठा कर सर्व ज्योतिश्चक्र को बतलाइये। इस पर उसने मुझे अपने विमान में बिठा कर सर्व ग्रह, नक्षत्र आदि की गति, मान आदि बतलाया । जिस को जान कर मैं कृतार्थ हुआ और अब लोगों के उपकार के लिये ही मैं इधरउधर घूमता रहा हूँ । लोगोंद्वारा यह सब वृत्तान्त सुनने पर राजाने उसे राज्यपुरोहित बनाया। १ ज्योतिष शास्त्र का मुहूर्त ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy