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________________ व्याख्यान २९ : : २७३ : भावार्थ:- हे राजा ! तुमने ऐसी अपूर्व धनुर्विद्या कहां से सिखी कि - जिस से मार्गणं का समूह समीप आता है और गुण दिगन्त में जाते हैं ? सरस्वती स्थिता वक्त्रे, लक्ष्मीः करसरोरुहे । कीर्तिः किं कुपिता राजन् ! येन देशान्तरं गता ॥२॥ भावार्थ:- हे राजा ! सरस्वती तो तुम्हारे मुंह में वास करती है, लक्ष्मी हस्तकमल में विद्यमान है परन्तु कीर्ति तुम से कोपायमान हो कर देशान्तर में क्यों चली गई ? सर्वदा सर्वदोऽसीति, मिथ्या त्वं स्तूयसे बुधैः । नारयो लेभिरे पृष्ठं, न वक्षः परयोषितः ॥ ३॥ भावार्थ:- हे राजा ! पंडित गण जो आप की प्रशंसा करते है कि आप सर्वदा सर्व का दान करते हों यह झूठी है, क्योंकि तुम अपने शत्रु को पीठ नहीं दिखाते, और परस्त्री को वक्षःस्थल अर्पण नहीं करते, अतः तुम सर्व का दान करनेवाले नहीं कहला सकते । १ मार्गण अर्थात् बाण का समूह समीप आता है और गुण-धनुष की डोरी दिशान्तर में जाती है । यह विरोध हुआ । उसके परिहार में मार्गण - मागण का समूह पास में आता है और दयादिक गुण अर्थात् गुणों की कीर्ति दिगन्त में जाती है । १८
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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