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________________ व्याख्यान २३ : : २१५ : श्रेष्ठ बन जाय और ऐसा करने के उपहारस्वरूप मैं तुझे एक करोड़ स्वर्णमुद्रा भेट करूं। यह सुन कर धनपालने कहा कि-- मेरुसर्षपयोर्हसकाकयोः खरताययोः। अस्त्यन्तरमवन्त्यादेरयोध्यादेश्च भूपते ॥ १ ॥ भावार्थ:--हे राजा ! मेरुपर्वत और सरसों के कण में, हँस और कोए में तथा गधे और गरुड़ में जितना अन्तर है, उतना ही अन्तर (अनुक्रम से) अवंति, तुझ और महादेव तथा अयोध्या, भरत और आदीश्वर में है। यह सुन कर अति क्रोधित हो राजाने कहा कि-अरे धनपाल ! ऐसे वचन बोलते हुए तेरी जिह्वा के सहस्र टुकडे क्यों नहीं हो जाते ? यह सुन कर धनपाल ने निःशंकपन से कहा कि-- हे दोमुहय निरक्खर, लोहमइय नाराय किं तुमं भणिमो । गुजा हि समं कणयं, तुलं न गओसि पायालं ॥१॥
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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