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________________ व्याख्यान २१ : : १८५ : ___ यहां पर यदि किसी को यह शंका हो कि " शंका नामक जो पहला दोष बतलाया गया था उसमें और इस विचिकित्सा में क्या फर्क है ?" तो कहना है कि शंका तो द्रव्यगुणपर्याय सर्व पदार्थों में होती है अर्थात् धर्मास्तिकायादि द्रव्यों में, उनके गुणों में और पर्याय में अनेक प्रकार की उत्पन्न होती है किन्तु यह विचिकित्सा तो केवल मात्र की हुई क्रिया में ही उत्पन्न होती है, अतः शंका और विचिकित्सा के विषय एक दूसरे से भिन्न हैं । अथवा अन्य शब्दों में विचिकित्सा अर्थात् मुनि का मान आदि से मलिन शरीर देख कर उसकी जुगुप्सा-निन्दा करना । जिस प्रकार कि ये मुनिजन प्रासुक जल से शरीर का प्रक्षालन( स्नान) करें तो इसमें क्या दोष है ? ऐसा विचार कर उनकी जुगुप्सा करना भी विचिकित्सा कहलाती है। यह विचिकित्सा श्रीजिनेश्वरप्ररूपित धर्म पर अनास्ता( अश्रद्धा )रूप होने से समकित को दूषित करनेवाली हैं । इस विषय दुर्गधा रानी का दृष्टान्त कहा जाता है:- . __ • दुर्गंधा राणी का दृष्टांत राजगृह का राजा श्रेणिक एक वार उद्यान में समव. सरित श्री वीर प्रभु को वन्दना करने निमित्त उसकी सैन्य सहित जा रहा था कि मार्ग में दुर्गध के सहन नहीं होने से वस्त्र के छोर से नासिका को बंध कर चलते हुए सैनिकों को देख कर उसने अपने किसी सेवक से इसका कारण पूछा।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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