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________________ व्याख्यान १९ : : १७१ : उसके शोक्य का था और दूसरा उसका खुद का था । वे दोनों लड़के एक दिन पाठशाला से घर पर आये । उनको उस स्त्रीने माषपेया ( उड़द की राबड़ी) खाने को दी। उसको खाते खाते उसमें काले छिलके देख कर शोक्य का पुत्र विचार करने लगा कि इस राबड़ीमें मक्खियें हैं, मेरी माता की शोक होने से इसने मुझे मक्खिये डाल कर यह राबड़ी देना जान पड़ता है। इस प्रकार शंका रखने से उनको वमन हो गया। उसी प्रकार सदैव शंका होने से , हमेशा वमन होते होते उसे ऊर्ध्ववात की महाव्याधि हो गई जिससे अन्त में वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। और दूसरे पुत्रने तो ऐसा विचार किया कि मेरी माता मुझे मक्षिकावाला भोजन नहीं दे सकती। इस प्रकार निःशंकारूप खाने से वह स्वस्थ रहा । इस दृष्टान्त से किसी बात में शंका न कर शंका का त्याग कर देना उचित है। इस विषय पर दूसरा दृष्टान्त कहा जाता है। तिष्यगुप्त निलव का दृष्टान्त श्रीमहावीरस्वामी को केवलज्ञान प्राप्त होने बाद सोलह वर्ष में दूसरा तिष्यगुप्त नामक निह्नव हुआ। उसका वृत्तान्त इस प्रकार है। राजगृही नगरी के गुणशील नामक चैत्य में एक बार चौदह पूर्वधारी वसु नामक आचार्य पधारे। उनके तिष्यगुप्त
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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