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________________ : १६६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : घर आने पर उसको विचार हुआ कि-मैं अवन्ति के सिंहस्थ राजा का सेवक हूँ इस लिये मुझको उसे अवश्य प्रणाम करना पडेगा और ऐसा करने पर मेरा नियमभंग होगा। ऐसा विचार कर उसने अपने हाथ में पहनने को एक अंगुठी बनाई और उसमें मुनिसुव्रतस्वामी की एक प्रतिमा बनवाई। फिर जब सिंहस्थ के पास जाता तब उस अंगुठी को सन्मुख रख कर प्रणाम करता अर्थात् वह मनद्वारा तो जिनेश्वर को ही प्रणाम करता था और बाहर से ( देखने में ) सिंहरथ राजा को प्रणाम करता हुआ दिखाई पड़ता था। एक बार किसी दुष्टने यह सब वृत्तान्त सिंहराजा से निवेदित किया जिसको सुन कर राजाने विचार किया कि अहो ! वज्रकर्ण कैसा कृतनी है ? वह मेरा राज्य भोगता है . फिर भी मुझे प्रणाम मात्र नहीं करता, इस लिये उस दुष्ट को दंड देना ही न्याय है । ऐसा विचार कर उसने संग्राम के लिये रणमेरी बजवाई। उस समय किसी पुरुषने वज्रकर्ण को जा कर कहा किहे साधर्मी वज्रकर्ण राजा ! तुमको जैसा अच्छा लगे वैसा करो । सिंहस्थ राजा तेरे पर चढाई कर आ रहा है । वजकर्णने पूछा कि-तू कौन है ? और कहां रहता है ? उसने उत्तर दिया कि-हे देव ! मैं कुन्डनपुर का रहनेवाला वृश्चिक नामक श्रावक हूँ। एक बार मैं बहुतसा सामान ले कर उजैनी नगरीमें गया था। वहां एक दिन वसन्तोत्सव में १ अवन्ति और उज्जैनी दोनों का एक ही अर्थ है।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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