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________________ : १५० : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : भी यदि मन की शुद्धि रक्खी हो तो वह अवश्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इस प्रसंग पर निम्न लिखित आनन्द श्रावक का अधिकार उपलब्ध है: आनन्द श्रावक का दृष्टान्त राजगृह नगरी में आनन्द नामक एक कुटंबी रहता था। वह एक बार गुणशील नामक चैत्य में श्री वीरप्रभु का आगमन सुन कर अपने कुटुम्ब सहित पैरों चल कर केवली के ईश भगवान के पास पहुंचा। प्रभु को वन्दना कर अनेकांत मत का स्थापन करनेवाली बाणी को सुनने से उसको प्रतिबोध प्राप्त हुआ, इससे उसने समकित सहित देशविरति ग्रहण की। उसमें प्रथम द्विविध, त्रिविध कर स्थूल जीवहिंसादिक पांच अणुव्रत ग्रहण किये। उसके चोथे व्रत में उसकी स्त्री के अतिरिक्त अन्य सर्व स्त्रीयों का त्याग किया। पांचवें व्रत में अपनी इच्छानुसार द्रव्य का (परिग्रह का ) प्रमाण किया कि-नकद धन में चार करोड़ सोनामहोर निधान में, चार करोड़ व्याज कमाने में और चार करोड़ व्यापार में रखना, इससे अधिक नहीं रखना । दस हजार गायों का गोकुल कहलाता है ऐसे चार गोकुल, एक हजार गाड़िये, कृषि के लिये पांचसो हल, और स्वारी के लिये चार बाहन रक्खे। इससे अधिक का त्याग किया। छठे दिगवत
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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