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________________ व्याख्यान १५ : : १४१ : करो क्यों कि पुत्र रहित अपना कुल शोभायमान नहीं होता। कहा भी है कि यत्र नो स्वजनसंगतिरुच्चैयंत्र नो लघुलघूनि शिनि । यत्र नास्ति गुणगौरवचिन्ता, हन्त तान्यपि गृहाण्यग्रहाणि ॥१॥ भावार्थ:-जिस के घर पर स्वजन एकत्रित हो कर नहीं बैठते अर्थात् स्वजनों की संगति नहीं, जिस घर में छोटे छोटे बालक क्रीड़ा नहीं करते और जिस घर में गुण के गौरवपन का चिन्तवन नहीं होता वे घर घर की गिनती में नहीं हैं। यह सुन कर श्रेष्ठीने कहा कि-हे प्रिया ! तेरा कहना सत्य है परन्तुं मेरे चित्त में विषयसुख की बिलकुल अमिलाषा नहीं है । इसे उसने कहा कि-हे स्वामी ! विषयसुख के लिये विवाह नहीं करना तो ठीक है परन्तु सन्तान के लिये फिर से विवाह करना कोई बुरी बात नहीं है । यह सुन कर श्रेष्ठी मौन रहा । इस लिये जयसेनाने स्वयं खोज कर किसी श्रेष्ठी की गुणसुन्दरी नामक कन्या की याचना की। याचना कर उसके साथ उसके पति का विवाह करा दिया। फिर शनैः २ जयसेनाने घर का सर्व कार्यभार
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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