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________________ व्याख्यान १४ : : १३७ : कपट से श्राविका वेष पहन कर मागधिका नदीकिनारे खड़े हुए उस मुनि के पास पहुँची । मुनि को वंदना कर वह बोलि कि " हे मुनिराज ! स्थान स्थान पर चैत्यों तथा मुनियों को वन्दना कर मेरे भोजन करने का नियम है । आज आपका यहां होना सुन कर मैं यहा वन्दना करने के लिये आई हूँ, अतः हे मुनिराज ! निर्दोष अन्न-जल ग्रहण कर मुझे कृतार्थ कीजिये ।" ऐसा कह कर उसने नेपाला के चूर्ण से मिश्रित सुन्दर मोदक उसको बहोराया, जिसके खाने से उसको शीघ्र ही अतिसार की व्याधिने आघेरा । इससे उसने अन्य छोटी छोटी बालगणिकाओं के द्वारा उसकी वैयावच्च कराई कि जिससे वह मुनि अल्प समय में ही चारित्र से भ्रष्ट होकर उसके आधीन हो गया । फिर वह गणिका उसको लेकर कूणिक के पास आई । कूणिक ने कूलवालक से कहा कि-इस विशालानगरी को जीतने का उपाय करो । कूणिक का वचन स्वीकार कर वह विशालानगरी में गया। वहां सर्वत्र भ्रमण करते हुए एक स्थान पर उसने मुनिसुव्रतस्वामी का स्तूप देख कर विचार कियाकि इस स्तूप के प्रभाव से इस पुरी को कोई नहीं जीत सकता है, इस लिये सर्वप्रथम इसके भंग करने का कोई उपाय ढूंढना चाहिये । ऐसा विचार कर ग्राम में इधरउधर फिरने लगा। उसको देख कर पुरवासियोंने उससे पूछा कि-हे मुनि ! इस नगरी का उपद्रव कब शान्त होगा ? इस पर उसने उत्तर दिया
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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