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________________ : ११२ श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : छोड़ कर उसके पीछे हो जाती थी, इस से उद्वेग पाये हुए पुरजनोंने समुद्रविजय राजा को विज्ञप्तिपूर्वक यह सब वृत्तान्त जाहिर किया जिसको सुन कर राजाने पुर जनों को समझाबुझा कर विदा किया। फिर वसुदेव को बुला कर उससे कहा कि-आज से तू अपने राजगढ़ में ही क्रीडा करना, बाहर मत निकलना । वसुदेवने उसकी आज्ञा को सिरोधार्य किया। एक बार ग्रीष्मऋतु में शिवादेवी से समुद्रविजय के विलेपन के लिये भेजे हुए कटोरे को ले जाते हुए दासी को देख कर वसुदेव कुमारने पूछा कि-हे दासी ! क्या ले जाती है ? ला मुझे दें। दासीने देने से इन्कार किया इस पर वसुदेवने बलात्कारपूर्वक उसके पास से चन्दन का कटोरा छीन कर चन्दन का अपने शरीर पर विलेपन किया । इस से रुष्टमान हुई दासीने कहा कि ऐसे बदमाश हो इसी कारण घररूपी केदखाने में रखे गये मालूम होते हों । यह सुन कर वसुदेवने पूछा कि-यह क्यों कर ? इस पर उसने पुरवासियों सम्बन्धी सब वृत्तान्त कह सुनाया। इसमें वसुदेव अपना अपमान समझ कर, रोष में भर उसी रात्रि को चूपके से नगर से बाहर निकल गया और उसकी जंघा चीर कर उसके रुधिर से नगर के दरवाजे पर लिखा कि, "भाई के अपमान से वसुदेवने यहां चित्ता में प्रवेश किया है।" बाद में उसके समीप ही एक चित्ता बना कर उसमें किसी मुर्दे को जला कर वसुदेव देशान्तर चला गया ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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