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________________ व्याख्यान ८ : : ९१ : उनके पास भी किस प्रकार जाउँ ? इस समय तो जन्म से लगा कर सेवित किये हुए शंकर यदि मेरे यश का रक्षण करें तो बहुत श्रेष्ठ हैं अन्यथा तो तीनों जगत के जीतनेवाले इन प्रभु के सामने शंकर भी क्या कर सकते हैं ? वह तो इस समय कहीं भग गये जान पड़ते हैं परन्तु किसी भी प्रकार से भाग्य के वश से यदि यहां मेरी जय हो तो मैं तीनों भुवन में पंडितशिरोमणि बनूँ । इस प्रकार जब वे विचार कर रहा था तो भगवंतने उनको पुकारा कि -- हे इन्द्रभूति गौतम ! क्या तुम सुखी तो हो ? यह सुन कर गौतमने विचार किया कि अहो ! क्या यह मेरा नाम भी जानते हैं ? या तीनों जगत में प्रसिद्ध मेरा नाम को कौन नहीं जानता ? बच्चों से लगा कर सब सूर्य को जानते हैं, वह किसी से छिपा हुआ नहीं है परन्तु इसने मुझे मधुर वाक्य से बुलाया है इससे मेरी समझ से यह मेरे साथ वादविवाद करने से डरता है परन्तु मैं ऐसे मीष्ट वचन से संतुष्ट होनेवाला नहीं हूँ । यदि यह मेरे मन के संशय को दूर कर दें तो मैं इसको सच्चा सर्वज्ञ समझुं और तब ही मुझको आश्चर्य हो । गौतम इस प्रकार विचार कर रहा था कि भगवानने कहा कि - हे गौतम ! जीव है या नहीं ? इस विषय में तुम्हारे मनमें संशय है। चारों प्रमाण से ( प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्दप्रमाण से ) जीव ग्राह्य नहीं हो सकता इस लिये जीव है ही नहीं ऐसी तुम्हारी मान्यता हैं
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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