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________________ श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : हाथी काले मेघ के समान गर्जना करता हैं किन्तु जैसे दुष्काल में भूखे प्राणी को कहीं से अन्न मिल जाय उसी प्रकार मुझे भी आज मेरे भाग्यवश यह वादी मिला हैं, अतः अब मैं उसके पास जाता हूँ । यमराज के लिये कोई मालवा देश दूर नहीं होता, चक्रवर्ती के लिये कोई अजय नहीं होता, पंडितों से कोई छिपा नहीं होता, और कल्पवृक्ष के लिये वस्तु नहीं देने योग्य नहीं होती । इस लिये आज उसके पास जाकर उसका पराक्रम तो देख लूँ। साहित्यशास्त्र, न्यायशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, छंदशास्त्र और अलंकारशास्त्र आदि सब शास्त्रों में मैं निपुण हूँ। किस शास्त्र में मेरा प्रयास नहीं ? अतः उस वादी को मैं जीत कर उसके सर्वज्ञान के आडंबर को दूर करुंगा। ___ इस प्रकार गर्विष्ठपन के वचनों को बोलते हुए इन्द्रभूतिने देह की कान्ति को बढ़ाने लिये अपने शरीर पर बारह तिलक लगाये, सुवर्ण का यज्ञोपवीत धारण किया और उत्तम वस्त्र पहिने । इस प्रकार महाआडम्बर कर अपने पांचसो शिष्यों सहित रवाना हुआ। उस समय उसके शिष्यगण विरुदावली बोलने लगे कि जिसके कंठ में सरस्वती देवी आभूपणरूप विद्यमान हैं, जो सर्व पुराणों का ज्ञाता हैं, जो वादीरूपी केल के लिये कृपाण (खड्ग ) के समान है, अपितु वादीरूपी अंधकार को दूर करने के लिये सूर्य समान, वादीरूपी घंटी को तोड़ने लिये मुद्गर समान, सर्वशास्त्रों का
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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