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________________ व्याख्यान ८: : ८५ : सहन नहीं कर सकता क्यों कि आकाश में दो सूर्य नहीं रह सकते, एक गुफा में दो सिंह नहीं रह सकते और एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती । इस प्रकार विचार करते हुए इन्द्रभृतिने प्रभु को बांद कर वापीस लौटते हुए लोगों को पूछा कि-हे लोगों ! सर्वज्ञ कैसा है ? तो लोगोंने उनके आठ प्रातिहार्य का स्वरूप बतलाया और कहा किःयदि त्रिलोकी गणनापरा स्यात्तस्याः समाप्तिर्यदि . नायुषः स्यात् । परे परायं गणितं यदि स्याद् गणेयनिःशेषगु णोऽपि स स्यात् ॥१॥ भावार्थ:-यदि कदाच तीनों जगत के जीव भगवान के गुणों की गणना करने को तत्पर हो और इसमें भी उनके आयुष्य की समाप्ति ही न हो और परार्ध से भी अधिक संख्या के अंक हो तो वे कदाच भगवान के समग्र गुणों की गणना कर सके। . इस प्रकार लोगों के मुंह से सुन कर इन्द्रभूति विचार करने लगा कि-सचमुच यह कोई बड़ा भारी धूर्त जान पड़ता है कि जिसने सब लोगों को भ्रम में डाल रखा है, परन्तु जिस प्रकार सूर्य अंधकार को और सिंह अपनी केशवाली के छेद को सहन नहीं कर सकता इसी प्रकार मैं भी उसको सहन
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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