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________________ व्याख्यान ८: : ८१ : - व्याख्यान ८ पाखंडी के वर्जनरूप चोथी श्रद्धाशाक्यादीनां कुदृष्टीनां, बौद्धानां कूटवादिनाम् । वर्जनं क्रियते भव्यैः, सा श्रद्धा स्यात्तुरीयका ॥१॥ भावार्थ:-शाक्य आदि कुदृष्टिओं ( मिथ्यात्वी ) का, बौद्धों का और मिथ्याभाषियों का वर्जन करना ये चौथी श्रद्धा कहलाती हैं। शाक्य मतवाले उन्मत्त होकर ऐसे उपदेश करते है कि:न मांसभक्षणे दोषो, न मये न च मैथने ।। प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥१॥ भावार्थ:-मांस भक्षण करने में, मद्य-मदिरा पान करने में और विषयसुख के सेवन में कोई दोष नहीं क्यों कि प्राणियों की ऐसी ही प्रवृत्ति है परन्तु मांसभक्षण आदिसे निवृत्त होने में बड़ा फल है। . वे किसी युवा स्त्री को उद्देश कर कहते हैं किःपिब खाद चारुलोचने !, यदतीतं वरगात्रि! तन्नते।। न हि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥१॥
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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