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________________ : ७६ः श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : दिया । इसे सुनकर वेदना से विह्वल जमालि तुरन्त ही उठ. कर सोने की इच्छा से वहां गया तो आधा संथारा पथराया हुआ पाया, जिस से वह क्रोधित हुआ और 'क्रियमाणं कृतं' (किया जानेवाले काम किया हुआ कहा जा सकता है ) ऐसा सिद्धान्त का वचन उसने स्मरण किया। उसी समय मिथ्यात्व का उदय होने से कितनी युक्तियों द्वारा उसने सिद्धान्त के उस वचन को असत्य समझा । वह विचारने लगा कि “क्रियमाणं कृतं, चलमानं चलितं" आदि भगवान का वचन असत्य है यह आज मैने प्रत्यक्ष देखा है, क्यों कि यह संथारा अभी “क्रियमाणं " अर्थात् किया जाता है नही, “ कृतं" अर्थात् किया हुआ नहीं। इसी प्रकार सर्व वस्तु यदि की जाती हो वो तो हुई नहीं कह सकते परन्तु जो कार्य किया गया हो-पूरा हो गया हो वह किया हुआ कहला सकता है । जिस प्रकार घट आदि कार्य क्रियाकाल के अन्त में ही हुआ दिखाई देता है। परन्तु शिवस्थासादि समय में घटरूपी कार्य हुआ नहीं दिखाई देता। यह बात बच्चे से लगा कर सर्व जनों को प्रत्यक्ष सिद्ध है । इस प्रकार विचार कर वह अपनी कल्पित युक्तिय सबै साधुओं को समझाने लगा तो उसके समुदाय के स्थविर साधुओं ने उससे कहा कि १ शिव और त्थास ये घड़े के पेटाल, गोलाश आदि अवयव विशेष हैं।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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