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________________ समान पत्तों की वृष्टि होती है और उनका शरीर बींध लिया जाता है। कभी-कभी परमाधामीदेव उन्हें भयंकर दुर्गन्धमय वैतरणी नदी में डाल देते हैं। नरक के जीवों को तीव्र अशाता वेदनीय का उदय होता है, जिस कर्म के फलस्वरूप वे भयंकर अशाता के भागी बनते हैं। नरक के जीव सतत भय संज्ञा से ग्रस्त होते हैं। परमाधामीदेव छेदन-भेदन के द्वारा उन्हें सतत संत्रस्त करते रहते हैं। नरक में सूर्य का प्रकाश न होने से वहाँ घोर अन्धकार छाया रहता है। इस प्रकार यह लोकाकाश विविधताओं से भरा पड़ा है। . लोकाकाश में कहीं पर जीवात्माएँ सुख के महासागर में डूबी हुई हैं तो कहीं पर घोर भयंकर वेदनाओं को सहन कर रही हैं। कहीं पर प्रानन्द के बाजे बज रहे हैं तो कहीं पर शोक व विलाप के करुण स्वर सुनाई दे रहे हैं । कहीं सुख का महासागर है तो कहीं दुःख का महासागर। देवलोक में देवताओं को तीव्र पुण्य कर्म का उदय है। अतः वे सुख में डूबे हुए हैं, हजारों वर्षों के कालगमन का भी उन्हें पता नहीं चलता है। देवलोक में जन्म के बाद नाटक चलता है, उस एक नाटक में दो-दो हजार वर्ष का दीर्घकाल व्यतीत हो जाता है, फिर भी उन देवताओं को कुछ पता नहीं चलता है । नरक के जीवों को घोर पाप कर्म का उदय है। इस तीव्र शान्त सुधारस विवेचन-६६
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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