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________________ 'पंचसूत्र' में कहा गया है -'अन्य के सुकृत की अनुमोदना करने से, उनके गुणों के प्रति प्रमोदभाव धारण करने से अपनी भवितव्यता का परिपाक होता है अर्थात् आत्मा में मुक्ति-गमन की योग्यता प्रगट होती है।' यह प्रमोदभाव जगत् में रहे हुए समस्त गुणवान जीवों के प्रति होना चाहिये। ग्रन्थकार महर्षि 'प्रमोद भावना' के प्रारम्भ में सर्वप्रथम सर्वगुण सम्पन्न और सर्वोत्कृष्ट पुण्यप्रकृति के भोक्ता तीर्थंकर परमात्मा के गुणों का कीर्तन करते हुए फरमाते हैं कि क्षपकश्रेरिण पर चढ़कर कर्मों का क्षय करने वाले तीर्थंकर भगवन्तों की जय हो। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मों के क्षय और उपशमन के लिए क्रमशः क्षपकश्रेरिण और उपशमश्रेरिण है। क्षपकश्रेणि के द्वारा प्रात्मा उन घातिकर्मों का मूल से क्षय करती है और एक बार उन घातिकर्मों का क्षय हो जाने के बाद आत्मा पुनः उन कर्मों को नहीं बाँधती है, जबकि उपशमश्रेरिण के द्वारा प्रात्मा कर्मों का मात्र उपशमन करती है। इस उपशमश्रेरिण का काल अन्तर्मुहूर्त ही है। उस अन्तर्मुहूर्त काल की समाप्ति के बाद प्रात्मा उस उपशमश्रेरिण से नीचे उतर आती है और पुनः उन कर्मों का बन्ध प्रारम्भ कर देती है। उपशान्त वीतराग बनी आत्मा कुछ देर के बाद पुनः रागी बन जाती है, जबकि क्षपकश्रेरिण पर आरूढ़ होकर आत्मा ने जिन कर्मों का क्षय कर दिया है, वह प्रात्मा उन कर्मों का पुनः बंध नहीं करती है। क्षपकश्रेरिणगत शान्त सुधारस विवेचन-१५३
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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