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________________ बस, आध्यात्मिक जगत् में हमारी स्थिति उस बालक की तरह ही है। हम भी धर्म-वृक्ष के मूल का सिंचन तो भूल रहे हैं और धर्म के अन्य अंगों के सिंचन का प्रदर्शन कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में धर्म का वास्तविक फल कहाँ से मिल सकेगा। अध्यात्म-उपासक किसी महात्मा के जीवन की एक घटना है। वे प्रतिदिन संध्या समय परमात्मा का ध्यान करते थे। एक बार वे संध्या समय ध्यान में बैठे, किन्तु आज उनका मन ध्यान में एकाग्र नहीं बन पा रहा था। उन्होंने बहत प्रयत्न किए, परन्तु वे सब प्रयत्न विफल गए। वे सोचने लगे-'आज ध्यान में एकाग्रता क्यों नहीं आ रही है ?' कुछ सोचने के बाद उन्हें पता चला-'प्राज किसी निरपराधी के साथ सामान्य झगड़ा हो गया था और आक्रोश में मैंने अत्यन्त कटु शब्द कह दिए थे।' तत्काल वे अपने स्थान से खड़े हो गए और उन्होंने जाकर उस निरपराधी व्यक्ति से क्षमायाचना की। बस, इस क्षमायाचना का एक जादुई असर हमा। वे ज्योंही ध्यान में बैठे, उनका मन ध्यान में केन्द्रित हो गया। 'मैत्री भावना' हमें सर्व जीवात्मानों के साथ आत्मीय सम्बन्ध जोड़ना सिखाती है । 'मैत्री' अर्थात् अन्य का हितचिन्तन । इस भावना के पात्र जगत् के समस्त जीव हैं अर्थात् इस भावना के द्वारा जगत् में रहे समस्त जीवों के कल्याण की कामना की जाती है। पूज्यपाद सूरिपुरन्दर हरिभद्र सूरिजी म. ने भी धर्म की व्याख्या करते समय 'मैत्र्याविभावसंयुक्त, तद्धर्म इति कीर्त्यते । कहकर मैत्री आदि भावनाओं की महत्ता बतलाई है । शान्त सुधारस विवेचन-१११
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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