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________________ वास्तव में, सुख तो आत्मा का धर्म है और वह आत्मा से ही प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु मोहान्धता के कारण जीवात्मा की दृष्टि आत्मा की ओर न होकर बहिर्जगत् की ओर ही होती है और वह उसी से सुख पाना चाहती है । छिलकों को पीसने से तेल निकल क्या मूंगफली के सकता है ? क्या पत्तों के सिंचन से वृक्ष का सिंचन हो सकता है ? क्या जल का बिलौना करने से घी निकल सकता है ? कदापि नहीं,.... तो इसी प्रकार संसार के भौतिक पदार्थों से भी सुख पाने की आशा करना व्यर्थ ही है | जब तक आत्मा पर से मोह का प्रावरण नहीं हटता है, तब तक आत्मा आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील नहीं बन पाती है । राग, द्वेष और मोह की पराधीनता के कारण आत्मा सन्मार्गगामी नहीं बन पाती है । 'रागी दोषान् न पश्यति । द्वेषी गुरणान् न पश्यति मोही तु विपर्यय पश्यति ।' के नियमानुसार रागी व्यक्ति वस्तु के दोष को और द्वेषी व्यक्ति वस्तु के गुरण को नहीं देख पाता है तथा मोहाघीन प्रात्मा वस्तु को विपरीत रूप में देखती है, वह गुरण में दोषबुद्धि और दोष में गुरणबुद्धि करती है । इस मोह के कारण ही आत्मा जड़तत्त्व से अनुराग करती है और जीवतत्त्व से द्वेष करती है; जबकि जीव के प्रति मैत्री शान्त सुधारस विवेचन- १०७
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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