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________________ द्वितीयभावनाष्टकम्-गीतम् ___ ( राग - मारुणी ) स्वजनजनो बहुधा हितकामं, प्रीतिरसरभिरामम् । मरणदशावशमुपगतवन्तम्, रक्षति कोऽपि न सन्तम् । विनय विधीयतां रे, श्रीजिनधर्मशरणम् अनुसन्धीयतां रे, शुचितरचरण-स्मरणम् ॥ विनय० २४ ॥ (ध्र वपदम्) अर्थ-स्वजन वर्ग अनेक प्रकार से हित की इच्छा करने वाला हो और प्रेम के रस में डुबो देने वाला हो, फिर भी जब व्यक्ति मरणदशा के अधीन होता है, तब कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर पाता है। अतः हे विनय ! तू जिनधर्म की शरण स्वीकार कर और अत्यन्त पवित्र चारित्र के साथ अपना अनुसन्धान कर ॥ २४ ॥ विवेचन एक मात्र शरण्य जिनधर्म इस संसार में माँ के हृदय में पुत्र के प्रति, पत्नी के हृदय में पति के प्रति तथा बहिन के हृदय में भाई के प्रति प्रेम देखने को मिलता है, परन्तु वह सब प्रेम स्वार्थजन्य ही होता है। स्वार्थ शान्त सुधारस विवेचन-६२
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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