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________________ प्रति भो आकर्षित होने को आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अनुत्तर देव विमान का भी सुख एक दिन तो समाप्त हो जाता है। देवलोक में सुख कितना ही क्यों न हो, परन्तु आखिर उस सुख के भोग-काल को मर्यादा है । उस मर्यादा के पूर्ण होते ही देव का भव पूर्ण हो जाता है और एक समृद्ध देव को भी गटर के समान मलिन गर्भाशय में अवतरित होना पड़ता है । अपने दोघं आयुष्य को समाप्ति के छह मास पूर्व जब देवता अपने आगामी भव को देखते हैं तब उनको स्थिति अत्यन्त गम्भीर हो जाती है। वे अत्यन्त दुःखी हो जाते हैं, फूलों की शय्या भी उनके लिए अत्यन्त दुःखदायी बन जाती है । 'मुझे यह सब दिव्य सुख छोड़कर जाना पड़ेगा' इसकी कल्पना से ही देवता भयातुर हो जाते हैं। जिस सुख का परिणाम दुःख रूप है, उस सुख को सुख कैसे कह सकते हैं ? और वह भी तो अल्पकालीन है। प्रायुष्य की समाप्ति के साथ वह सुख भी छिन जाता है। जब देवों का सुख भी सुखदायी नहीं है तो इस वर्तमान संसार के सुखों में पागल बनना, यह तो एकमात्र मूर्खता ही है । अतः संसार के इन सुखों की अनित्यता को समझकर उनसे सावधान बनने में ही बुद्धिमत्ता है। यैः समं क्रीडिता ये च भशमीडिता, यैः सहाकृष्महि प्रीतिवादम् । तान् जनान् वीक्ष्य बत भस्मभूयङ्गतान्, निर्विशङ्काः स्म इति धिक प्रमादम्।। मूढ० १७ ॥ शान्त सुधारस विवेचन-३६
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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