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________________ अनशनमूनोदरतां वृत्तिह्रासं रस - परिहारम् , भज सांलीन्यं कायक्लेशं , तप इति बाह्यमुदारम् ॥विभा० १२०॥ अर्थ-अनशन, ऊरणोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, संलीनता मोर कायक्लेश, ये बाह्य तप हैं ॥ १२० ।। विवेचन बाह्य तप की साधना तीर्थंकर परमात्मा ने तप के मुख्य दो भेद (बाह्य तप और प्राभ्यन्तर तप) बतलाए हैं । यहाँ बाह्य तपों का वर्णन करते हैं : 1. बाह्य तप-इस तप में बाह्य पदार्थों का त्याग किया जाता है। इस तप में देह को कष्ट मिलता है, जो अन्य व्यक्तियों के द्वारा प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। आहार आदि बाह्य पदार्थों का त्याग होने से, अन्य व्यक्तियों द्वारा प्रत्यक्ष होने से तथा जैनेतर व्यक्तियों द्वारा भी आचरित होने से इसे बाह्य तप कहते हैं। इसके छह भेद हैं (१) अनशन-जिस तप में चारों प्रकार के आहार का सर्वथा अथवा प्रांशिक त्याग किया जाता है, उसे अनशन तप कहते हैं। (अ) प्रशन-जिस पदार्थ के खाने से क्षुधा की तृप्ति हो, उसे अशन कहते हैं। जैसे-रोटी, शाक, मिष्ठान्न आदि । शान्त सुधारस विवेचन-२६५
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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