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________________ (अ) उपशांत यथाख्यात चारित्र—यह चारित्र ग्यारहवें गुणस्थान में होता है, जहाँ कषायों का सर्वथा उपशमन हो जाता है। इस अवस्था से पतन अवश्य होता है । (प्रा) क्षायिक यथाख्यात चारित्र-जहाँ राग-द्वेष का सर्वथा क्षय हो जाता है, यह चारित्र बारहवें गुणस्थान में प्राप्त होता है। पूज्य उपाध्यायजी म. संवर भावना की प्रस्तावना करते हुए अपनी आत्मा को ही सम्बोधित करते हुए फरमाते हैं कि अपनी आत्मा में जिन-जिन द्वारों से कर्मों का आगमन जारी हो, उन द्वारों को बन्द करने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिये । शरीर में जैसा रोग हो, उसके अनुसार उसका उपचार किया जाता है। बस, इसी प्रकार से यदि जोवन में क्रोध की प्रबलता हो तो उसे रोकने के लिए 'क्षमा' की दवा लेनी चाहिये। दुनिया में कई गुप्त रोग प्रचलित हैं, जिनका पता मात्र रोगी को ही होता है, क्योंकि वे रोग बाहर से दिखाई नहीं देते हैं। इसी प्रकार अपनी आत्मा के अंतरंग रोगों को भी हम ही जान सकते हैं। रोग की जानकारी के बाद ही उसका निदान किया जा सकता है। बिना जानकारी के उपचार करना हानिकर भी हो सकता है। इसी प्रकार प्रास्रव भावना के द्वारा महापुरुषों ने अपनी आत्मा के रोगों की पहचान कराई है, उन रोगों के निराकरण के लिए 'संवर' का उपाय भी बतलाया है। शान्त सुधारम विवेचन-२४८
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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