SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिथ्यात्व सर्व पापों का सरदार है। अतः जब तक इसकी उपस्थिति है, तब तक प्रात्मा में कर्मों का आस्रव अत्यधिक परिमाण में होता है। (२) अविरति-अविरति अर्थात् पाप के त्याग की प्रतिज्ञा का अभाव । जब तक इच्छापूर्वक रुचि के साथ पाप-त्याग की प्रतिज्ञा नहीं की जाती है, तब तक पाप न करते हुए भी पाप का बंध होता है। १. जैसे किसी से आपने मकान भाड़े पर ले लिया, अब उस मकान का आप उपयोग करें या न करें, तो भी उसका भाड़ा आपको चुकाना पड़ता है। २. किसी से रुपये उधार लिये। अब उन रुपयों का आप उपयोग करें या न करें, समय होते ही आपको ब्याज देना पड़ता है। ३. बिजलीघर से आपने अपने घर में बिजली ली है । अतः आपको प्रतिमास न्यूनतम चार्ज देना ही पड़ता है। यदि आप नहीं देना चाहते हैं तो आपको कनेक्शन कटवाना चाहिये । इसी प्रकार यदि पाप कर्मों का बंधन नहीं चाहते हैं तो पापत्याग की प्रतिज्ञा के द्वारा पापों से सम्बन्ध तोड़ देना चाहिये, अन्यथा उनका आगमन सतत जारी रहता है। एकेन्द्रिय आदि अवस्थाओं में अविरति का तीव्र उदय होने से कर्मों का आस्रव चालू ही रहता है। अविरति के त्याग की प्रतिज्ञा का बहुत बड़ा फल है । शान्त सुधारस विवेचन-२१०
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy