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________________ दुःख के संवेदन द्वारा शाता-अशाता वेदनीय कर्म का क्षय करती है। इस प्रकार प्रात्मा प्रति-समय कर्मों का क्षय करती है। इसके साथ ही यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि आत्मा अपनी शुभाशुभ प्रवृत्ति के द्वारा प्रति-समय सात या माठ कर्मों का बन्ध भी करती रहती है। प्रति-समय कर्म का क्षय अति अल्प होता है, जबकि कर्म के आगमन और उसके बन्ध का परिमारण अत्यधिक है। एक मकान में से आप कचरा साफ करना चाहते हैं और बाहर अत्यन्त तूफान चल रहा है। आपने दरवाजे-खिड़कियाँ आदि खुली ही रखी हैं, तो क्या आप मकान को साफ कर सकोगे ? नहीं। कदापि नहीं । आप थोड़ा सा कचरा साफ करोगे तब तक तो ढेर सा कचरा अन्दर आ जाएगा। शत्रुओं का प्रागमन अधिक संख्या में हो और उनमें से बहुत थोड़े ही परास्त हो रहे हों, तो स्थिति भयजनक हो जाती है। प्रास्रवद्वारों के खुले होने से सतत कर्मों का आगमन चालू रहता है और उनका प्रबल प्रतिकार नहीं हो पाता है। अतः समस्या है कि आत्रवों के प्रतिकार बिना इस भीषण संसार से मात्मा की मुक्ति कैसे होगी ? मिथ्यात्वाविरति-कषाययोग संज्ञा श्चत्वारः सुकृतिभिरास्रवाः प्रदिष्टाः । कर्माणि प्रतिसमयं स्फुटरमीभिबंध्नन्तो भ्रमवशतो भ्रमन्ति जीवाः ॥८६॥ (प्रहर्षरणी) शान्त सुधारस विवेचन-२०७
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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