SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार सोचकर निरन्तर आत्म-कल्याण के पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रयत्न करना चाहिये । येन विराजितमिदमति - पुण्यं , तच्चिन्तय चेतन नैपुण्यम् । विशदागममधिगम्य निपानं , विरचय शान्तसुधारसपानम् ॥भावय रे०॥३॥ अर्थ-हे चेतन ! तू ऐसी निपुणता का चिन्तन कर, जिससे इसे महान् पुण्य के रूप में बिराजमान किया जा सके। विस्तृत आगम रूप जलाशय को जानकर शान्त सुधारस का पान कर ॥ ८३ ॥ विवेचन प्रागम का अमृतपान करो अति बीभत्स ऐसे मानव-देह को अति पुण्यशाली भी बनाया जा सकता है । यदि इस देह के द्वारा सम्पूर्ण अहिंसा का पालन किया जाय, इस देह के द्वारा संयम और तप का आचरण किया जाय, तो यह देह भी तीर्थ स्वरूप बन जाती है और देवों के लिए भी वन्दनीय-पूजनीय बन जाती है । त्रिलोकपूज्य तीर्थकर परमात्मा भी इसी मानव-देह के द्वारा तीर्थंकर पद प्राप्त करते हैं। चारों निकाय के सभी देव उनकी पूजा-अर्चना आदि करते हैं। तीर्थंकर परमात्मा के जन्मसमय कोटि देवताओं का आगमन होता है और उनके निर्वाण महोत्सव के लिए भी करोड़ों देवता पाते हैं, यह सब प्रभाव उनके शान्त सुधारस विवेचन-२०२
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy