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________________ इसी प्रकार इस देह में भी हमें कमल स्वरूप चैतन्य की ओर ही दृष्टि डालने की है, उसी के स्वरूप की हमें भावना करनी है। दम्पतिरेतोरुधिरविवर्ते , किं शुभमिह मलकश्मलगर्ते । भृशमपि पिहितं स्रवति विरूपं, को बहु मनुतेऽवस्करकूपम् ॥भावय रे० ॥७७॥ अर्थ–दम्पत्ति के वीर्य और रक्त के कचरे के ढेर से जो बना हुआ है, उस देह में अच्छा क्या हो सकता है ? उसको बारम्बार ढक देने पर भी उसमें से बीभत्स पदार्थ बहते रहते हैं। इस कचरे के कूप की कौन प्रशंसा करे? ॥७७ ।। विवेचन शरीर गन्दगी का कूप है कई गांवों में कचरा डालने के लिए बड़े-बड़े गड्ढे अथवा कुए होते हैं। शहरों में भी सड़क के किनारे कचरा पेटी देखने को मिलती है। उस कचरा पेटी में क्या होता है ? एकमात्र कचरा ही न ? बस, यह शरीर भी कचरे का ही ढेर है। इसकी उत्पत्ति भी रज, वीर्य और रक्त जैसे दुर्गन्धित पदार्थों से ही हुई है। गर्भावास अर्थात् मल की कोठरी में ही इसका सर्जन हुआ है। वहाँ न कोई सुगन्धित पदार्थ थे और न कोई सुख-सुविधा। शान्त सुधारस विवेचन-१९४
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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