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________________ वरणीय और केवल दर्शनावरणीय) तथा अन्तराय कर्म की पाँच प्रकृतियों (दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय तथा वीर्यान्तराय) का भी क्षय कर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तवीर्य गुण को भी प्राप्त करती है। इस प्रकार चार घाती कर्मों का क्षय हो जाने से प्रात्मा अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और वीतरागता प्राप्त करती है। राग और द्वेष के निवारण से आत्मा जिस परम सुख का अनुभव करती है, वह सुख अतुलनीय होता है। ऐसे परमात्मा केवलज्ञान और केवलदर्शन के बल से समस्त चराचर जगत के समस्त भूत, भावी और वर्तमान पर्यायों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष देखते हैं। वे परमात्मा अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, वीतरागता अर्थात् अक्षय चारित्र की पर्यायों में लीन रहते हैं। ऐसे विशुद्ध स्वरूपी जो परमात्मा हैं, उन्हें अपने हृदयमन्दिर में स्थापित करना चाहिये। अपने अनुभव मन्दिर में ऐसे एक वीतराग परमेश्वर की स्थापना कर उनसे वार्तालाप करो और उन परमात्मा के साथ अपनी आत्मा की एकता सिद्ध करो। __ परमात्मा ने जिस विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त किया है, उसी विशुद्ध स्वरूप की स्वामिनी अपनी आत्मा भी है। अतः उन परमात्मा को हृदय में स्थापित कर अब हमें अपनी आत्मा के परमात्म स्वरूप को पहचान लेना है। उस पहचान के बाद आत्मा जिस परम आनन्द का अनुभव करती है, वह अलौकिक ही है। अतः परमेश्वर परमात्मा को अपने हृदय मन्दिर में स्थापित करने के लिए तैयार हो जानो। शान्त सुधारस विवेचन-१४४
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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