SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किन्तु वास्तविक स्वतंत्र बनना कौन चाहता है ? वासनामों की गुलामी से मुक्त बनने के लिए प्रयास कहाँ है ? और इसी कारण वासनाओं की गुलामी से प्रात्मा कर्मतन्तुओं का सर्जन कर उसके जाल में फंस जाती है। उस जाल के बाहर ही यमराज रूप बिलाड़ रहा हुआ है। यह जीवात्मा रूप पक्षी ज्योंही उस जाल में से बाहर निकलने की कोशिश करता है, तत्क्षण यमराज उसे ग्रस्त कर देता है और भवितव्यता पुनः प्रात्मा को एक नये पिंजरे में डाल देती है। इस प्रकार भवितव्यता-नियति के वशीभूत बनी आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में जाती रहती है। देहरूप जाल में प्रतिबद्ध होने पर भी आत्मा को स्वबन्धन की वास्तविकता का ज्ञान नहीं होता है और चित्त की भ्रशता के कारण वह इधर-उधर भटकती है। अनन्तान्पुदगलावर्ताननन्तानन्तरूपभत । अनन्तशो भ्रमत्येव जीवोऽनादिभवार्णवे ॥ ३६ ॥ (अनुष्टप्) अर्थ--यह जीवात्मा इस अनादि भवसागर में अनन्त-अनन्त रूपों को धारण कर अनन्त-अनन्त पुद्गलपरावर्त तक भटकता रहता है ।। ३६ ॥ विवेचन भवभ्रमरण करते अनन्तकाल बीत चुका है किसी आत्मा ने सर्वज्ञ परमात्मा से पूछा-"प्रभो! इस संसार में मैं कब से भ्रमण कर रहा हूँ ?" शान्त सुधारस विवेचन-६६
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy