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________________ श्री संवेगरंगशाला उन्होंने जब कुछ भी जवाब नहीं दिया, तब पास में आकर सबको अच्छी तरह देखा। सबको मरे हए देखकर उसने विचार किया-अहो ! अनजान नाम वाले फलों को खाने से यह फल आया है। यदि निष्कारण वत्सल आचार्य श्री जी का दिया हआ नियम मुझे नहीं होता तो मैं यह फल खाकर यह अवस्था प्राप्त करता, गुण निधि और अज्ञान रूपी वृक्ष को जलाने में अग्नि तुल्य ऐसे श्री गुरुदेवों यावज्जीव विजयी रहे ! कि जिन्होंने नियम देने के बाहने से मुझे जीवन दान दिया है। इस तरह लम्बे समय तक गुरु की प्रशंसा करके शोक से अति व्याकूल शरीर वाला वह उनके शस्त्र आदि उपकरणों को एक स्थान पर रखकर, पूर्व में सुभटों के समूह साथ पल्ली में घूमता फिरता था परन्तु आज तो एकाकी उसमें भी मरे हये सर्व परिवार वाला मैं प्रकट रूप प्रवेश करते लोगों को मुख किस तरह बताऊँगा? ऐसा विचार कर मध्य रात्री होने पर चला। केवल एक तलवार की सहायता वाला शीघ्रमेव अपने घर पहुँचा और कोई नहीं देखे इस तरह शयन घर में प्रवेश किया, वहाँ उसने जलते दीपक की फैलती प्रभा समूह से अपनी पत्नी को पुरुष के साथ सुखपूर्वक शय्या में सोती हुई देखा। उस समय ललाट में उछलती और इधर-उधर नाचती फिरती त्रिवली से विकराल, दाँत के अग्र भाग से निष्ठुरता से होंठ को कुचलते वह अत्यन्त क्रोध से फटे अति लाल आँखों के प्रचंड तेज समूह से लाख के रंग से रंगी लाल तलवार को खींचकर विचार करने लगा कि-यम के मुख में प्रवेश करने की इच्छा वाला यह विचारा कौन है ? कि मेरे जीते हुए भी यह पापी मेरी पत्नी का सेवन करता है। अथवा लज्जा मर्यादा से रहित यह पापिनी मेरी पत्नी भी क्यों किसी अद्यम पुरुष के साथ ऐसे सो रही है। यहाँ पर ही इन दोनों का तलवार से टुकड़े करूँ ! अथवा यह तलवार जो कि पराक्रमी उग्र शत्रु सेना को और हाथियों के समूह को नाश करने में प्रचण्ड और अनेक युद्धों में यश प्राप्त किया है, उसे लोक विरुद्ध स्त्रीवध में क्यों उपयोग करूँ ? इसलिए इसमें एक को ही मार दूं इस तरह प्रहार करता है इतने में उस गुरुदेव के द्वारा पूर्व ली हुई प्रतिज्ञा अचानक ही स्मरण करता है, इससे सात आठ कदम पीछे हटकर जैसे ही प्रहार करता है, इतने में तो ऊपर की छत के साथ तलवार टकराने से आवाज हुई और भाभी के शरीर के भार से और आवाज सुनकर सहसा भय युक्त बहन बोली कि-वाह मेरा वंकचूल भाई चिरंजीवो ! वंकचूल ने यह सुनकर विचार किया-अरे रे ! अत्यन्त गाढ स्नेह वश मेरा अनुकरण करने
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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