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________________ ६१८ श्री संवेगरंगशाला से विरामी मन वाला और दृष्ट विकल्पों से अथवा शंकाओं से मुक्त तुम जिनमत रूपी समुद्र में से प्रगट हुआ यह आराधना रूपी अमृत का पान करो कि जिससे हमेशा जरा, मरण रहित तुम परम शान्ति स्वरूप मुक्ति को प्राप्त करो। इस प्रकार निर्मल ज्ञान के प्रकाश से मोहरूपी अंधकार चकचूर करने वाले श्री गौतम स्वामी ने यथास्थित वस्तु के रहस्य को कहा, तब मस्तक पर दो हस्त कमलों को स्थिर स्थापित कर हर्ष पूर्वक विकसित ललाट वाले विनय पूर्वक नमस्कार कर स्थविर इस प्रकार से स्तुति करने लगे। हे निष्कारण वत्सल ! हे तीव्र मिथ्यात्व के अन्धकार को दूर करने वाले दिवाकर-सूर्य ! आपकी जय हो। हे स्व-पर उभय के भय को खतम करने वाले ! हे तीन लोक का पराभव करने वाले काम का नाश करने वाले ! हे तीन जगत में फैली हुई बर्फ समान उज्जवल विस्तृत कीर्ति के समूह वाला ! हे सुरासुर सहित मनुष्यों ने सर्व आदर पूर्वक की हुई मनोहर स्तुति वाद वाले ! हे मोक्ष नगर की ओर प्रस्थान करते भव्य जीवा समूह के परम सार्थवाह ! और हे अति गहरे समुद्र की भ्रान्ति कराने वाले भरपूर करूणा रस के प्रवाह वाले भगवंत आप विजयी रहें। हे स्वामी ! विश्व में ऐसी कोई उपमा नहीं है कि जिसके साथ आपकी तुलना कर सकं ? केवल आप से ही आपकी तुलना कर सकता हूँ परन्तु दूसरा कोई नहीं है। कम गुण वालों की उपमा से उपमेय की सुन्दरता किस तरह हो सकती है ? 'तालाब से समुद्र' इस तरह की हुई तुलना शोभायमान नहीं होती है। हे प्रभु ! सौधर्माधिपति इन्द्र आदि भी आपके गुण प्रशंसा करने के लिये समर्थ नहीं है तो फिर तुच्छ बुद्धि वाला अन्य व्यक्ति आपकी स्तुति कर सकता है ? हम हे नाथ ! यद्यपि आप की उपमा और स्तुति के अगोचर है, फिर भी सद्गुरु हो, चक्षु दाता और अत्यंत श्रेष्ठ उपकारी हो, इससे भक्ति समूह से चंचल हम आपकी ही स्तुति करते हैं, क्योंकि निश्चय रूप में आप से अन्य कोई भी स्तुति पात्र नहीं है। इस कारण से आप ही इस विश्व में जय प्राप्त करते हो कि जिससे संसार समुद्र में डबते भव्य जीवों को यह आराधना रूपी नाव का परिचय करवाया। इस तरह श्रमणों में सिंह तुल्य भगवान श्री गौतम स्वामी की स्तुति कर स्थविर प्रारम्भ किये धर्म कार्यों को करने में सम्यग प्रकार से प्रवृत्त हुए। इस प्रकार यह संवेग रंग शाला नाम की आराधना-रचना समाप्त हुआ है अब उसका कुछ अल्प शेष कहता हूँ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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