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________________ श्री संवेगरंगशाला ૬૧૩ कथनानुसार धीरता रूप कवच से दृढ़ रक्षण करके अक्षुब्ध मन वाला वह बुद्धिमान महसेन मुनि धर्म ध्यान में स्थिर हुआ। फिर उस मुनि की इस प्रकार स्थिरता देखकर देव ने क्षण में बादल को अदृश्य करके सामने भयंकर दावानल को उत्पन्न किया, उसके बाद दावानल की फैलती तेजस्वी ज्वालाओं के समूह से व्याप्त ऊँचे जाती धुएँ की रेखा से सूर्य की किरण का विस्तार ढक गया, महावायु से उछलते बड़ी-बड़ी ज्वालाओं से ताराओं का समूह जल रहा था। उछलते तड़-तड़ शब्दों से जहाँ अन्य शब्द सुनना बन्द हो गया और भयंकर भय से कम्पायमान होती देवी और व्यंतरियों ने वहाँ अतीव कोलाहल कर रही थी। इससे सारा जगत चारों तरफ से जल रहा है, इस तरह देखा । इस प्रकार का भी उस दावानल को देखकर जब महसेन मुनि ध्यान से अल्प भी चलित नहीं हुआ तब देव ने विविध साग, भक्ष्य भोजन और अनेक जाति के पेय (पानी) के साथ श्रेष्ठ भोजन को आगे रखकर मधुर वाणी से कहा कि हे महाभाग श्रमण ! निरर्थक भूखे रहकर क्यों दुःखी होता है ? निश्चय नौव कोटि परिशुद्ध-सर्वथा निर्दोष इस आहार का भोजन कर । 'निर्दोष आहार लेने वाला साधु को हमेशा उपवास ही होता है।' इस सूत्र को क्या तुम भूल गये हो ? कि जिससे शरीर का शोषण करते हो? कहा है कि-चित्त की समाधि करनी चाहिए, मिथ्या कष्टकारी क्रिया करने से क्या लाभ है ? क्योंकि तप से सूखे हुए कंडरिक मुनि अधोगति में गया और चित्त के शुद्ध परिणाम वाला उसका बड़ा भाई महात्मा पुंडरिक तप किए बिना भी देवलोक में उत्पन्न हुआ। यदि संयम से थका न हो और उसका पालन करना हो तो हे भद्र ! दुराग्रह को छोड़कर अति विशुद्ध इस आहार को ग्रहण करो। __इस प्रकार मुनि वेशधारी मुनि के शरीर में रहे देव ने अनेक प्रकार से कहने पर भी महसेन मुनि जब ध्यान से भी अल्पमात्र भी चलित नहीं हुआ तब पुनः उसे अपने मन को मोहित करने के लिए पवित्र वेशधारी और प्रबल श्रेष्ठ शृङ्गार से मनोहर शरीर वाली युवतियों का रूप धारण कर वहाँ आया, फिर विकारपूर्वक नेत्र के कटाक्ष करती, सर्व दिशाओं को दूषित करती सुन्दर मुख चन्द्र की उज्जवल कान्ति के प्रकाश प्रवाह से गंगा नदी को भी हंसी करती और हंसीपूर्वक भुजा रूपी लताओं को ऊँची करके बड़े-विशाल स्तनों को प्रगट करती, कोमल झनझनना आवाज करती, पैर में पहनी हुई पजेब से शोभती थी, कंदोरा विविध रंग वाली मणियों की किरणों से सर्व दिशाओं में इन्द्र धनुष्य की रचना करती, कल्पवृक्ष की माला के सुगन्ध आकर्षित भ्रमर के समूह वाली, नाड़े के बाँधने के बहाने से क्षण-क्षण पुष्ट नाभि प्रदेश को प्रगट
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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