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________________ ६०८ श्री संवेगरंगशाला जो कहा था कि जिस तरह उसकी आराधना कर वह महसेन मुनि सिद्ध पद को प्राप्त करेगा उसका शेष अधिकार को अब श्री गौतम स्वामी के कथनानुसार संक्षेप में कहता हूँ : -- महसेन मुनि की अन्तिम आराधना :- तीन लोक के तिलक समान और इन्द्र से वंदित श्री वीर परमात्मा के शिष्य श्री गौतम स्वामी ने इस तरह पूर्व जिसका प्रस्तान किया था उसे साधु वर्ग और गृहस्थ सम्बन्धी आराधना विधिको विस्तारपूर्वक दृष्टान्त सहित परिपूर्ण महसेन मुनि को बतलाकर कहा है कि - भो ! भो ! महायश ! तुमने जो पूछा था उसे मैंने कहा है, तो अब तुम अप्रमत्त भाव में इस आराधना में उद्यम कर। क्योंकि वे धन्य हैं, सत्पुरुष हैं जिन्होंने मनुष्य जन्म पुण्य से प्राप्त किया है कि निश्चलपूर्वक जिन्होंने इस आराधना को सम्पूर्ण स्वीकार किया है । वही शूरवीर है. वही धीर है कि जिसने श्री संघ के मध्य में यह आराधना स्वीकार कर सुखपूर्वक चार स्कन्ध द्वार वाली आराधना में विजय ध्वजा को प्राप्त किया है, उन महानुभावों ने इस लोक में क्या नहीं प्राप्त किया ? अर्थात् उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया । और उद्यमशील होकर आदरपूर्वक जो आराधना करने वाले की सहायता करता है, उसे भी प्रत्येक जन्म में श्रेष्ठ आराधना को प्राप्त करता है । जो आराधक मुनि की भक्तिपूर्वक सेवा करता है और नमस्कार करता है वह भी सद्गति के सुखस्वरूप आराधना को फल को प्राप्त करता है । इस प्रकार श्री गौतम स्वामी के कहने से राजर्षि महसेन मुनि की हर्षानन्द से रोम-रोम गाढ़ उछलने लगे फिर श्री गणधर भगवन्त को तीन प्रदक्षिणा देकर पृथ्वी तल को मस्तक स्पर्श करते नमस्कार करके पुनरुक्ति दोष रहित अत्यन्त महाअर्थ वाली भाषा से इस तरह स्तुति करने लगा । श्री गौतम स्वामी की स्तुति :- हे मोहरूपी अन्धकार से व्याप्त इस तीन जगत रूपी मन्दिर को प्रकाशमय करने वाले प्रदीप ! आप विजयी रहो । मोक्षनगर की ओर प्रस्थान करते भव्य जीव के साथी ! आपकी जय हो । हे निर्मल केवल ज्ञानरूपी लोचन से समग्र पदार्थों के विस्तार से जानकार ज्ञाता । आपकी विजय हो । हे निरूपम अतिशायी रूप से सुरासुर सहित तीन लोक को जीतने वाले प्रभु! आपकी जय हो । हे शुक्ल ध्यान रूप अग्नि से घन घाती कर्मों के गाढ़ वान को जाने वाले प्रभु आपकी जय हो । चन्द्र और महेश्वर के हास्य समान उज्जवल अति आश्चर्य कारक चारित्र वाले हे प्रभु आप विजयी रहो । हे निष्कारण वत्सल ! हे सज्जन लोक में सर्व से प्रथम पंक्ति को प्राप्त करते प्रभु ! आपकी विजयी हो । हे साधुजन को इच्छित पूर्ण !
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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