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________________ श्री संवेगरंगशाला ५६३ अपराधी माना जाता है वैसे श्री जिनेश्वगदि की आशातना करने वाला भी महादोष को धारण करने वाला बनता है। नियम किए बिना मरने वाला ऐसे दोषों को नहीं प्राप्त करता है । नियम करके उसी का ही भंग करने से अबोधि बीज रूप दोष को प्राप्त करता है। तीन लोक में सारभूत इस संलेखना के परिश्रम और दुष्कर साधुत्व को प्राप्त कर अल्प सुख के लिए नाश मत कर । धीर पुरुषों ने कथित और सत्त्पुरुषों ने आचरण किया इस संथारे को स्वीकार कर बाह्य पीड़ा से निरपेक्ष धन्य पुरुष संथारे में ही मरते हैं। पूर्व में संकलेश को प्राप्त करने पर भी उसे इस तरह समझाकर पुनःउत्साही बनाये, और उस दुःख को पर देह का दुःख माने। ऐसा मानकर और महाद्धिक का उत्सर्ग मार्ग रूप (कवच) रक्षण होता है। आगाढ़ कारण से तो अपवाद रूप रक्षण भी करना योग्य है। इस प्रकार गुणमणि को प्रगट करने के लिए रोहणचल की भूमि समान और सद्गति में जाने का सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला चौथा मूल समाधि लाभ द्वार के अन्दर कवच (रक्षण) नामक चौथा अन्तर द्वार कहता हूँ। अब परोपकार में उद्यमशील निर्यामक गुरू की वाणी से अनशन के रक्षण को करते क्षपक जो आराधना करता है उसे समता द्वार के करने का कहा है। पाँचवा समता द्वार :-अति मजबूत कवच वाला बख्तरधारी महासुभट के समान, निज प्रतिज्ञा रूपी हाथी ऊपर चढ़कर आराधना रूपी रण मैदान की सन्मुख आया हुआ, पास में प्रशंसा करते साधु रूपी मंगल पाठकों द्वारा प्रगट किया उत्साह वाला, वैराग्यजनक ग्रन्थों की वाचना रूप युद्ध के बाजों की ध्वनी से हषित हुआ, संवेग प्रशम-निर्वेद आदि दिव्य शस्त्रों के प्रभाव से आठ मद स्थान रूप निरंकुश सुभटों की श्रेणी को भगा दो दुष्ट आक्रमण करते दुर्जय हास्यादि छह निरंकुश हाथियों के समूह को बिखरते, सर्वत्र भ्रमण करते इन्द्रियों रूपी घोड़ों के समूह को रोकते, अति बलवान् भी दुःसह परीषह रूपी पैदल सैन्य को भी हराते और तीन जगत से भी दुर्जय महान् मोह राज को भी नाश करते और इस प्रकार शत्रु सेना को जोतने से प्राप्त कर निष्पाप जय रूपी यश पताका वाले और सर्वत्र राग रहित क्षपक सर्व विषय में समभाव को प्राप्त करता है। वह इस प्रकार : समता का स्वरूप :-समस्त द्रव्य के पयार्यों की रचनाओं में नित्य ममता रूपी दोषों का त्यागी, मोह और द्वेष के विशेषतया नमाने वाला क्षपक सर्वत्र समता को प्राप्त करता है । इष्ट पदार्थों का संयोग, वियोग में, अथवा अनिष्टों के संयोग वियोग में रति, अरति को उत्सुकता, हर्ष और दीनता को छोड़ता है। मित्र ज्ञातिजन, शिष्य सार्मिकों में अथवा कुल में भी पूर्व में
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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