SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 613
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६० श्री संवेगरंगशाला प्रभु की भक्ति से सुनक्षत्र मुनि और सर्वानुभूति मुनि ने गोशाले को हित शिक्षा दी थी परन्तु उसे सुनकर क्रोधमान होकर गोशाले ने उसी समय प्रलय काल के अग्नि समान तेजो लेश्या से उन्हें जलाया फिर भी उन दोनों ने मुनि आराधना कर समाधि मरण प्राप्त किया। तथा हे सुन्दर ! क्या तूने उग्र तपस्वी, गुण के भंडार, क्षमा करने में समर्थ उस दण्ड राजा का नाम नहीं सुना ? कि मथुरापुरी के बाहर यमुनावंक उद्यान में जाते दुष्ट यमुना राजा ने उस महात्मा को आतापना लेते देखकर पापकर्म के उदय से क्रोध उत्पन्न हुआ तीक्ष्ण बाण की अणी द्वारा मस्तक ऊपर सहसा प्रहार किया और उनके नौकरों ने भी पत्थर मारकर उसके ऊपर ढेर कर दिया फिर भी आश्चर्य की बात है कि उस मुनि ने समाधि से उसे अच्छी तरह से सहन किया कि जिससे सर्व कर्म के समूह को खतम कर अन्तकृत केवली हुए। अथवा क्या कोशाम्बी निवासी यज्ञदत्त ब्राह्मण का पुत्र सोमदेव को तथा उसका भाई सोमदत्त का नाम नहीं सुना ? उन दोनों ने श्री सोमभूति मुनि के पास में सम्यक् दीक्षा लेकर संवेगी और गीतार्थ हुए। फिर विचरते हुए प्रतिबोध देने के लिए उज्जैन गये और माता, पिता के पास पहुंचे। वहाँ ब्राह्मण भी अवश्यमेव शराब पीते थे। बुजुर्गों ने मुनियों को अन्य द्रव्यों से युक्त शराब दिया और साधुओं ने अज्ञानता से 'अचित्त पानी ही है' ऐसा मानकर साधुओं ने उसे विशेष प्रमाण में पीया और उनको शराब का असर हुआ और काफी पीड़ित हुए, फिर उसका विकार शान्त होते सत्य को जानकर विचार करने लगे कि-धिक्कार है कि महा प्रमाद के कारण ऐसा यह अकार्य किया। इस तरह वैराग्य को प्राप्त करते महा धीरता वाले उन्होंने चारों आहार का त्याग करके नदी के किनारे पर अति अव्यवस्थित लकड़ी के समूह ऊपर पादपोपगमन अनशन स्वीकार कर रहे, उस समय बिना मौसम वर्षा से नदी की बाढ़ में बहते उस काष्ट के साथ समुद्र में पहुँचे वहाँ उनको जलचर जीवों से भक्षण तथा जल की लहर से उछलने आदि दुःख सहन करते अखण्ड अनशन का पालन कर स्थिर सत्व वाले सम्यक् समाधि प्राप्त कर वे स्वर्ग में गये। इसलिए यदि इस प्रकार असहायक और तीव्र वेदना वाले भो सर्वथा शरीर की रक्षा नहीं करते उन सर्व ने समाधि मरण प्राप्त किया है। तो सहायक साधुओं द्वारा सार संभाल लेते और संघ तेरे समीप में है फिर भी तू आराधना क्यों नहीं कर सकता ? अर्थात् अमृत तुल्य मधुर कान को सुख कारक श्री जैन वचन को सुनाने वाला तुझे संघ बीच में रहकर समाधि मरण को साधना निश्चय ही शक्य है। तथा नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव लोक में रहकर तूने जो सुख दुःख को प्राप्त किया है उसमें चित्त लगाकर इस तरह विचार कर ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy