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________________ ५८४ श्री संवेगरंगशाला में से एक-एक भी परमेष्ठि का ध्यान पाप नाशक है तो एक साथ में पाँचों परमेष्ठि समग्र पापों का उपशामक कैसे न हो ? अवश्यमेव समग्र पाप नाश होते हैं। ये पाँच परमेष्ठि मेरे मन में क्षण भर के लिए स्थान करो, स्थिर हो जाओ जिससे मैं अपना कार्य सिद्ध करूँ। इस प्रकार उस समय प्रार्थना करता हैं। इन परमेष्ठिओं को किया हआ नमस्कार संसार समुद्र तरने के लिए नौका है, सद्गति के मार्ग में श्रेष्ठ रथ है, दुर्गति को रोकने वाला है, स्वर्ग में जाने का विमान है और मोक्ष महल की सोढ़ी है, परलोक की मुसाफिरी में पाथेय है, कल्याण सुख की लता का कन्द है दुःखनाशक है और सुखकारक हैं। अतः अवश्यमेव मेरे प्राण पन्च परमेष्ठि के नमस्कार के साथ जाए, जिससे संसार में उत्पन्न होने वाले दुःखों की जलांजलि दूं। इस प्रकार बुद्धिमान यदि हमेशा पन्च नमस्कार के प्राणिधान में तत्पर रहता है तो अन्तिम समय में उसका कहना ही क्या ? अथवा पास में रहे दूसरों द्वारा बोलते इस नमस्कार मन्त्र को बहुमान पूर्वक एकाग्र मन से उसे धारण करे। और निर्यामक साधु सुनावे तो वह चन्दा विज्जापयन्ना, आराधना पयन्ना आदि संवेग जनक ग्रन्थों को हृदय में सम्यक् धारण करे । यदि वायु आदि से आराधक को बोलना बन्द हो जाए अथवा अत्यन्त पीड़ा हो जाने से बोलने में असक्य हो तो अंगुलि आदि से संज्ञा करे। निर्यामण कराने में तत्पर वह साधु भी अनशन करने वाले के नजदीक से भी अति नजदीक आकर कान के सुखकारी शब्दों से जब तक अंगोपांग आदि में गरमी दिखे तब तक अपना परिश्रम न गिनता हुआ मन से एकाग्र बनकर अति गम्भीर आवाज करते संवेग भाव को प्रगट कराने वाले ग्रन्थों को अथवा अस्खलित पन्च नमस्कार मन्त्र को लगातार सुनाता रहे। और भूखा जैसे इष्ट भोजन का, अति तषातुर, स्वादिष्ट शीतल जल, और रोगी परम औषध का बहुमान करता है वैसे क्षपक उस श्रवण का बहुमान करता है। इस प्रकार शरीर बल क्षीण होने पर भी भाव बल का आलम्बन करके धीर पुरुष सिंह वह अखण्ड विधि से काल करे । परन्तु यदि निश्चल नजदीक में कल्याण होने वाला हो तभी निश्चल कोई महासात्त्विक पुरुष इस प्रकार कथनानुसार प्राण का त्याग करे। क्योंकि ऐसा पण्डितमरण अति दुर्लभ है। इस प्रकार पाप रूपी अग्नि को शान्त करने के लिए मेघ समान सद्गति को प्राप्त करने में उत्तम सरल मार्ग समान, चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नामक आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला चौथा समाधि लाभ द्वार में दूसरा प्रतिपत्ति द्वार कहा है। अब यदि प्रतिपत्ति वाला भी किसी कारण किसी प्रकार से उस आराधना का क्षोभ हो तो उसे प्रशम करने के लिए अब सारणा द्वार कहते हैं।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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