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________________ श्री संवेगरंगशाला ५७६ असाधार्मिक वर्ग को भी खमाता हूँ। और क्षमा याचना में तत्पर बना म सन्मार्ग में रहे मार्गानुसारी वर्ग तथा उन्मार्ग में चलने वालों को भी खमाता हूँ, क्योंकि हमारा अब यह खामना का समय है । परमाधार्मिक जीवन को प्राप्त कर और नरक में नारकी जीव बनकर मैंने परस्पर नारकी जीवों को जो पीड़ा करी हो उसकी मैं खामना करता हूँ। तथा तिर्यंच योनि में एकेन्द्रिय योनि आदि में उत्पन्न होकर मैंने एकेन्द्रिय आदि जीवों का तथा जलचर, स्थलचर, खेचर को प्राप्त कर मैंने जलचर आदि को भी किसी प्रकार मन, वचन, काया से यदि कुछ अल्प भी अनिष्ट किया हो उसकी मैं निन्दा करता हूँ। तथा मनुष्य के जन्मों में भी मैंने राग से, द्वेष से, मोह से, भय या हास्य से, शोक या क्रोध से, मान से, माया से या लोभ से भी इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में यदि मन से दुष्ट मनोभाव, वचन से तिरस्कार हांसी से और काया से तर्जना ताड़न बन्धन या मारना इस प्रकार अन्य जीवों को शरीर, मन की यदि अनेक पीड़ा दी हो, इसी तरह कुछ किया हो, करवाया हो, या अनुमोदन किया हो उसे भी मैं त्रिविध निन्दा करता हूँ। एवं मन्त्र आदि के बल से देवों को किसी व्यक्ति या पात्र उतारा हो, सरकाया हो, स्तम्भित या किल्ली में बांधा हो, अथवा खेल तमाशा आदि करवाया हो, यदि किसी तरह भी अपराध किया हो, अथवा तिथंच योनि को प्राप्त कर मैंने किसी तिर्यंच मनुष्य और देवों को तथा मनुष्य योनि को प्राप्त कर मैंने यदि किसी तिर्यंच मनुष्य और देवों को और देव बनकर मैंने नारकी, तिर्यंच, मनुष्य या देवों को यदि किसी प्रकार भी शारीरिक, या मानसिक अनिष्ट किया हो उस समस्त को भी मैं त्रिविध, त्रिविध सम्यक् खमाता हूँ और मैं स्वयं भी उनको क्षमा करता हूँ। क्योंकि यह मेरा क्षमापना का समय है। पाप बुद्धि से शिकार आदि पाप किया हो उसे खमाता हूँ इसके अतिरिक्त धर्म बुद्धि से भी यदि पापानुबंधी पाप किया हो, तथा यदि बछड़े का विवाह किया हो, यज्ञ कर्म किया हो, अग्नि पूजा की हो, प्याऊ का दान, हल जोड़े हों, गाय और पृथ्वी का दान तथा यदि लोहे सुवर्ण या तिल की बनी गाय का दान, अथवा अन्य किसी धातु आदि और गाय का दान दिया हो, अथवा इस जन्म में यदि कुण्ड, कुएँ, रहट, बावड़ी और तालाब खुदवाया आदि की क्रिया की हो, गाय, पृथ्वी, वृक्षों का पूजन अथवा वन्दन किया हो या रूई आदि का दान दिया हो, इत्यादि धर्मबुद्धि से भी यदि किसी पाप को किया हो। यदि देव में अदेव बुद्धि और अदेव में देव बुद्धि की हो, अगुरू में भी गुरूबुद्धि और सुगुरू में अगुरू बुद्धि की, तथा यदि तत्त्व में अतत्व बुद्धि और
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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