SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 595
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७२ श्री संवेगरंगशाला और (३) अभिनिवेश अर्थात् मिथ्या आग्रह से इस प्रकार तीन प्रकार से प्रगट होता है । इस शल्य को नहीं छोड़ने वाला, दानादि धर्मों में रक्त होने पर भी मलिन बुद्धि से सम्यक्त्व का नाश करके नन्द मणियार नामक सेठ के समान दुर्गति में जाता है । उसकी कथा इस प्रकार : नन्द मणियार की कथा इसी जम्बू द्वीप के अन्दर भरतवर्ष में राजगृह नगर में अतुल बलवान श्री श्रेणिक नामक राजा राज्य करता था। उसकी भुजा रूपी परीध से रक्षित कुबेर समान धनवान लोगों को आनन्द देने वाला, राज का भी माननीय और मणियार (मनिहार) का व्यापार करने में मुख्य नन्द नामक सेठ रहता था। सुरासुर से स्तुति होते जगद् बन्धु श्री वीर परमात्मा एक समय नगर के बाहर उद्यान में पधारे। उसे सुनकर वह नन्द मणियार भक्ति की समूह वाला अनेक पुरुषों के परिवार से युक्त पैरों से चलकर शीघ्र वन्दन के लिए आया। फिर बड़े गौरव के साथ तीन प्रदक्षिणा देकर श्री वीर परमात्मा को वन्दन कर धर्म श्रवण के लिए पृथ्वी के ऊपर बैठा। तब तीन भवन के एक तिलक और धर्म के आवास भूत श्री वीर प्रभु ने जीव हिंसा की विरति वाला असत्य और चौर्य कर्म से सर्वथा मुक्त मैथुन त्याग की प्रधानता वाले एवं परिग्रह रूपी ग्रह को वश करने में समर्थ साधु और गृहस्थ के योग्य श्रेष्ठ धर्म का सम्यक् उपदेश दिया। इसे सुनकर शुभ प्रतिबोध होने से नन्द मणियार सेठ ने बारह व्रत से सम्पूर्ण गहस्थ धर्म को स्वीकार किया। और फिर अपने को संसार से पार उतरने के समान मानता वह प्रभु को अतीव भक्ति से वन्दन करके बार-बार स्तुति करने लगा कि : भयंकर संसार में उत्पन्न हुआ महाभय को नाश करने वाले निर्मल भुजा बल वाले। क्रोध अथवा कलियुग की मलिनता का हरण करने के लिए पानी का प्रवाह तुल्य और महान बड़े गुण समूह के मन्दिर, हे देव ! आप श्री विजयी हो। पर दर्शन के गाढ़ अज्ञान अन्धकार का नाश करने वाले, हे सूर्य ! काम रूपी वृक्ष को जलाने वाले हे दावानल ! और अति चपल घोड़ों के समान इन्द्रियों को वश करने के लिए दामण-रस्सी समान, हे वीर परमात्मा ! आप श्री विजयी हो। मोह महाहस्ती को नाश करने वाले, हे सिंह ! लोभ रूपी कमल को कुम्हलाने वाले हे चन्द्र ! और संसार के पथ में चलने से थके हए अनेक प्राणियों के ताप को हरण करने वाले हे देव ! आप विजय रहो। रोग, जरा और मरण रूपी शत्रु सेना के भय से मुक्त शरीर वाले। मन
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy