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________________ ५६८ श्री संवेगरंगशाला वहाँ नमुचि ने उसे देखा और पूर्व परिचय ख्याल में फिर 'यह मेरा दुराचरण लोगों को कहेगा।' ऐसा मानकर अत्यन्त कुविकल्प के वश होकर उसने अपने पुरुषों को भेजकर लकड़ी, मुक्के आदि अनेक प्रकार से मारकर उस मुनि को नगर से बाहर निकाल दिया। इससे प्रचंड क्रोध उत्पन्न हुआ निरपराधी उस मुनि के मुख में से मनुष्यों को जलाने के लिए महा भयंकर तेजो लेश्या-आग निकलने लगी और काले बादल के समान धुआँ फैलने लगा, नगर में अंधकार छा गया। उस समय चक्रवर्ती और लोग उस मुनि को शान्त करने लगे। परन्तु जब वे शान्त नहीं हा तब लोगों से वह बात सुनकर वहाँ शीघ्र ही चित्र मुनि आए और उसे मधुर वाणी से कहने लगा कि-भो-भो ! महायश । श्री जैन वचन को जानकर भी तुम क्रोध क्यों कर रहे हो? क्रोध से अनन्त भय का हेतू भत संसार भ्रमण होगा, उसे तू नहीं जानता है ? अथवा अपकार करने वाले विचारे नमुचि का क्या दोष है। क्योंकि जीव के दुःख और सुख में उसके कर्मों का कारण है। इत्यादि प्रशम से अमृत समान उत्तम वचनों से शान्त बने कषाय वाले संभूति मुनि उपशान्त हुए और वे दोनों मुनि उद्यान में गये। वहाँ अनशन को स्वीकार करके दोनों एक प्रदेश में बैठे। फिर सनत् कुमार चक्रवर्ती ने अंतःपुर के साथ आकर भक्तिपूर्वक उनके चरण कमलों में नमस्कार किया, और उसकी मुख पट्टरानी ने भी नमस्कार किया परन्तु उसके केश का सुख स्पर्श का अनुभव करते संभूति मुनि ने कहा कि यदि इस तप का फल हो तो मैं जन्मान्तर में चक्रवर्ती बन। उसे चित्र मुनि ने संसार विपाक को बताने वाले वचनों से अनेक बार समझाया, फिर भी उसने उसी तरह निदान का बन्धन किया। आयुष्य का क्षय होते मरकर दोनों सौ धर्म देवलोक में देदीप्यमान देव हुए। वहाँ से च्यवन कर चित्र पुरिमताल नगर में धनवान के पुत्र रूप उत्पन्न हुआ और संभूति कंपिलपुर में ब्रह्म राजा की चूलणी रानी से पुत्र रूप जन्म लिया। फिर शुभ दिन में उसका ब्रह्मदत्त नाम रखा, इस विषय में आगे कहा है क्रमशः वह चक्रवर्ती बना फिर भरत चक्री के समान जब समग्र भरत की साधना कर वह विषय सुख भोगने लगा, तब एक समय उसे जाति स्मरण ज्ञान हुआ, पूर्व जन्म के भाई को जानने के लिए दास आदि पाँच जन्मों का वर्णन वाला आधा श्लोक बनाया। __ 'आस्व दासौमृगै हंसौ मातंगावमरौ तथा' अर्थात् :- हम दोनों दास, मृग, हंस, चंडाल और देव थे' फिर लोगों को दिखाने के लिए उसे राजद्वार पर लटकाकर यह उद्घोषणा करवाई कि यदि इसका उत्तरार्ध श्लोक जो पूर्ण करेगा उसे मैं आधा राज्य दूंगा । इधर
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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