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________________ ५५४ श्री संवेग रंगशाला रूप, मन, वचन और काया इसे तीन योग कहा है वह भी समाधि वाले को गुणकारी होता है और असमाधि वालों को दोष कारक बनता है । अत: संसार वास से थके हुए वैरागी धन्य पुरुष दुःख का हेतु भूत स्त्री की आसक्ति रूप बन्धन को तोड़कर श्रमण बने हैं । धन्य पुरुष आत्महित सुनते हैं, अति धन्य सुन कर आचरण करते हैं और उससे अति धन्य सद्गति का मार्गभूत गुण के समूह रूप शील में प्रेम करते हैं । जैसे दावानल तृण समूह को जलाता है वैसे सम्यग् ज्ञान रूपी वायु की प्रेरणा से और शील रूपी महाज्वालाओं वाला विक्लिष्ट उग्र तप रूपी अग्नि संसार के मूल बीज को जलाता है । निर्मलशील को पालन करने वालों आत्मा इस लोक और परलोक में भी 'यही परमात्मा है' इस प्रकार लोगों से गौरव को प्राप्त करता है । सत्य प्रतिज्ञा में तत्पर शील के बल वाला आत्मा उत्साह पूर्वक लीला मात्र से अत्यन्त महा भयंकर दुःखों को भी पार हो जाता है । शील रूपी अलंकार से शोभते आत्मा को उसी समय मर जाना अच्छा है परन्तु शील अलंकार से भ्रष्ट हुए का लम्बा जीवन भी श्रेष्ठ नहीं है । निर्मलशील वाले शील के लिए बार-बार शत्रुओं के घरों में भिक्षा के लिए भ्रमण करना अच्छा है किन्तु विशाल शील को मलिन करने वाला चक्रवर्ती जीवन भी अच्छा नहीं है । परन्तु बड़े पर्वत के ऊँचे शिखर से कहीं विषम खीन अन्दर अति कठोर पत्थर में गिरकर अपने शरीर के सौ टुकड़े करना श्रेष्ठ है और अति कुपित हुए बड़ी फूँकार वाला भयंकर और खून के समान लाल नेत्र वाला, जिसके सामने देख भी नहीं सकते, ऐसे सर्प के तीक्ष्ण दाढ़ों वाले मुख में हाथ डालना उत्तम है, तथा आकाश तक पहुँची हुई हो देखना भी असम्भव हो, अनेक ज्वालाओं के समूह से जलती प्रलय कारण प्रचण्ड अग्नि कुन्ड में अपना स्वाहा करना अच्छा है और मदोन्मत्त हाथियों के गन्ड स्थल चीरने में एक अभिमानी दुष्ट सिंह के अति तीक्ष्ण मजबूत दाढ़ों से कठिन मुख में प्रवेश करना अच्छा है परन्तु हे वत्स ! तुझे संसार के सुख के लिए अति दीर्घकाल तक परिपालन किया निमलशील रत्न का त्याग करना अच्छा नहीं है । शील अलंकार से शोभता निर्धन भी अवश्यमेव लोकपूज्य बनता है, किन्तु धनवान होने पर भी दुःशील स्वजनों में पूज्यनीय नहीं बनता है । निर्मलशील को पालन करने वालों का जीवन चिरकालिक हो परन्तु पापा सक्त जीवों के चिरकाल जीने से कोई भी फल नहीं है इसलिए धर्म गुणों की खान समान, हे भाई क्षपक मुनि ! आराधना में स्थिर मन वाले तू गरल के समान दुराचारी जीवन खतम कर मनोहर चन्द्र के किरण समान निर्मल - निष्कलंक और संसार की परम्परा 1
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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